निवृत्ति, ज्ञानेश्वर, सोपान एवं मुक्ताबाई पैठण (महाराष्ट्र)के आपेगांव में रहनेवाले कुलकर्णीजी की संतानें थी । चारों बच्चे भगवानजी के परमभक्त थे । उनके पिताने संन्यास की दीक्षा ली थी । परंतु अपने गुरु की आज्ञा से उन्होंने पुन: गृहस्थाश्रम में आगमन किया । इसलिए गांव के बच्चे उन्हैं ‘संन्यासी के बच्चे’ कहकर अवहेलना करने लगे । गांववालों ने तो उनसे बात करना भी बंद कर दिया था । उनसे समस्त संबंध तोड दिए गए थे !
एक दिन ज्ञानेश्वरजी रास्ते से गुजर रहे थे । कुछ लोग वहां आए । उनमें से एक व्यक्ति ने उनका अपमान करने के लिए पुछा, ‘‘ऐसा कौनसा ज्ञान तुम्हारे पास है, कि लोग तुम्हें ज्ञानदेव कहते हैं ? केवल नाम ज्ञानदेव रखने से किसी को ज्ञान नहीं मिलता !’’ तभी सामने से एक चरवाहा भैंसे को लेकर आ रहा था । उसकी ओर उंगली निर्देश कर उस व्यक्ति ने कहा, ‘‘इस रेडे का नाम ज्ञाना रखने से क्या वह ज्ञानी बनेगा ?’’
इसपर ज्ञानेश्वर बोले, ‘‘मुझ में और इस भैंसे में कोई भेद (अंतर) नहीं हैं ! परमेश्वर सभी के लिए एक समान होते हैं !’’ इसपर व्यक्ति ने कहा, ‘‘यदि तुम में और इस भैंसे में कोई अंतर नहीं, तो इसके मुख से वेदों का उच्चारण कर दिखाओ !’’ ज्ञानेश्वरजी आगे बढें । भैंसे के माथेपर अपना हाथ रखते ही वह वेदों का उच्चारण करने लगा ! यह चमत्कार देख उस व्यक्ति (निसंदेह) को संतुष्टि हुई कि, अवश्य ज्ञानेश्वरजी एक विभूति हैं ।
पैठण के (महाराष्ट्र के) विद्वान पंडितों से शुद्धीपत्र प्राप्त करने की अपेक्षा में वे पैठण के एक ब्राह्मण के घर में निवास कर रहे थे । उस दिन ब्राह्मण के पिता का श्राद्ध था । परंतु विधि करने के लिए एक भी ब्राह्मण नहीं मिल रहा था । यह समस्या उन्होंने ज्ञानेश्वरजी को बताई । समस्या सुनकर वे बोले, ‘‘मैं आपके पितरों को (पूर्वजों को) ही यहां भोजन के लिए बुलाता हूं । आप केवल भोजन की सिद्धता करें ।’’
उस ब्राह्मण ने संपूर्ण सिद्धता की । ज्ञानेश्वरजी ने अपने योग सामर्थ्य से उस ब्राह्मण के पितरों को बुलवाया । पितरों ने श्राद्ध का भोजन, वस्त्रालंकार एवं दक्षिणा ग्रहण की । संपूर्ण कार्य संपन्न होनेपर ज्ञानेश्वरजी ने ‘स्वस्थाने वासः’ कहनेपर पितर एका एक अदृश्य हो गए ! यह वार्ता पैठण में फैल गई । सभी ब्राह्मणों को अपने र्दुव्यवहारपर पश्चात्ताप हुआ । उन्होंने ज्ञानेश्वरजी का सम्मान किया । तथा ‘आप साक्षात परमेश्वर का अवतार है,आपको प्रायश्चित्त की आवश्यकता नहीं’ इस आशय का पत्र लिखकर दिया ।
ज्ञानेश्वरजी ने पैठण में रहते हुए किए चमत्कार आलंदी गांव में भी फैल गए । साक्षात परमेश्वर का आगमन हुआ है, ऐसा उन लोगों का भाव रहा । मराठी भाषा का पहला प्राचीन ग्रंथ ‘ज्ञानेश्वरी’ नेवासा में लिखा गया था । केवल १५ वर्ष की आयु में लिखा गया ‘ज्ञानेश्वरी ग्रंथ’ मराठी साहित्य का अमर भाग है !
आलंदी गांव में विसोबा नामक एक कुटिल व्यक्ती था । वह इन चारों बंधुओं से द्वेष करता था । ज्ञानेश्वरजी के वरिष्ठ बंधु एवं गुरु निवृत्तिनाथ ने मुक्ताबाई को (सबसे छोटी बहन) मांडे (मैदे की मीठी रोटी) बनाने के लिए कहा था । मुक्ताबाई ने आवश्यक सर्व सामग्री लायी मिट्टी का तवा (चकला) लाने के लिए वह कुम्हार के पास गई । परंतु वहा कुटिल विसोबा था । उसने पहले से ही कुम्हार को कह दिया था कि, वो इन बंधुओं को तवा न दें ।
उस कुम्हार का विसोबा के साथ लेन-देन होने से उसने विसोबा की बात असाहायता से मान्य की । मुक्ताबाई दुखी होकर घर लौट आयी और ज्ञानेश्वरजी से बोली, ‘‘मांडे कैसे सेकूं ? कुम्हार ने तवा नहीं दिया !’’ ज्ञानेश्वरजी ने तुरंत अपनी जठराग्नी प्रज्वलित किया और वे बोले, ‘‘मेरी पीठपर मांडे सेको । मुक्ताबाई ने ज्ञानेश्वरजी के पीठपर मांडे सेके ! तदुपरांत सभी बंधुगण भोजन के लिए बैठ गए । विसोबा यह दृश्य दूर से देख रहा था । यह अद्भूत चमत्कार देख, वह दौडकर इन बंधुओं की शरण में आ गया ।
महाराष्ट्र में चांगदेव नामक एक श्रेष्ठ योगी थे । आत्मा को ब्रह्मांड में ले जाने की योगविद्या से वे भली भांति परिचित थे । इस विद्याबलपर उन्होंने अपने आयु के चौदहसौ वर्ष निकाले थे ! वे स्वयं को सामर्थ्यशाली मानते थे । अपने समान अन्य कोई सद्गुरु नहीं हो सकता, ऐसा वह अपने शिष्यों को बताते थे ।
ज्ञानेश्वरजीकी वार्ता उन तक भी पहुंच गयी थी । उन्हें पत्र लिखने का विचार उनके मन में आया । वे पत्र लिखने लगे । परंतु पत्र का आरंभ कैसे करें इसपर वे भ्रमित हो गए । यदि वे पत्र के आरंभ में ‘तीर्थरूप’ लिखते तो ज्ञानेश्वरजी उनसे आयुसे छोटे थे । यदि ‘चिरंजीव’ लिखते तो, ज्ञानेश्वरजी से उनको आत्म-ज्ञान लेना पडता ! अंत में पत्र कोरा रख उन्होंने अपने शिष्यद्वारा ज्ञानेश्वरजी तक पहुंचाया ।
उस कोरे कागज को देख ज्ञानेश्वर बोले, ‘‘गुरु न करने से चांगदेव चौदहसौ साल कोरे ही रह गए !’’ उन्होंने उसी शिष्यद्वारा पत्र का उत्तर भेज दिया । वे लिखते है, ‘‘संपूर्ण विश्वका चालक आपके पास है । उसके द्वार छोटा-बडा (निम्न-उच्च) ऐसा भेद नहीं है ।’’
ज्ञानेश्वरजी का उत्तर उस शिष्य ने चांगदेव को बताया । चांगदेव अपने शिष्य परिवार को साथ लेकर निकल पडे। वे स्वयं एक बाघ पर हाथों में सांप का चाबुक थामे बैठे थे । यहां ज्ञानेश्वर, निवृत्तिनाथ, सोपान एवं मुक्ताबाई एक दीवारपर बैठे थे ।
जब उन्हें यह ज्ञात हुआ कि, चांगदेवजी स्वयं आ रहे है, तो उन्होंने उस दीवार को आज्ञा दी कि, संत हमसे मिलने आ रहे है।तो हमें स्वयं आगे जाकर उनका स्वागत करना चाहिए । वह अचेत दीवार उन्हें लेकर चलने लगी ! यह अद्भूत चमत्कार देख चांगदेवजी का गर्वहरण हो गया । वे ज्ञानेश्वरजी के चरणों में गिर पडे । उनसे उपदेश प्राप्त किया ।
भागवत पंथ की स्थापना कर ज्ञानेश्वरजीद्वारा २१ वर्ष की आयु में आलंदी के इंद्रायणी नदी के पावन तटपर संजीवनी समाधी ग्रहण की गयी । (कार्तिक वद्य त्रयोदशी, शके १२१८, दूर्मुखनाम संवत्सर, इ.स.१२९६, गुरुवार) इसके लगभग एक वर्ष उपरांत निवृत्ती, सोपान एवं मुक्ताबाई आदि भाई-बहन भी परलोकवासी हो गए ।