भोजराजा की राजसभा में कालिदास नामक एक महान विद्वान कवि थे । स्वयं राजा भोज भी अनेक निर्णय लेने में कवि कालिदास के मत सुनते थे । कालिदास सभी विद्वानों का आदर करते थे । वे विद्वानों को उनकी योग्यतानुसार सहायता भी करते थे । एक दिन एक निर्धन ब्राह्मण कालिदास के पास आया । वह कालिदास के समान कवि नहीं था; परंतु योग्य-अयोग्य जाननेवाला था । सीधा-सादा; परंतु योग्य मार्गपर चलनेवाला था ।
राजा भोज से कुछ द्रव्य प्राप्तिहोगी, यह आशा लेकर उसने धारा नगरी में प्रवेश किया । कालिदास ने उसकी संपूर्ण स्थितीजान ली । तदुपरांत कालिदास ने उसे पूछा, ‘‘राजसभा में खाली हाथ नहीं जाते । तुमने राजा को देन के लिए क्या उपहार लाया है ?’’ इसपर उस निर्धन ब्राह्मण ने उत्तर दिया, ‘‘कविराज, मेरे समीप रहनेवाले एक किसान से मैंने भिक्षा मांगकर गन्ने की बेंत लाई है ।’’ उसपर कालिदास बोले, ‘‘ठीक है ! वह लेकर कल राजदरबार में आओ ।’’
ब्राह्मण ने वहां के एक स्थानीय धर्मशाला में निवास किया । वहां जाकर संध्यादि कर्म एवं भोजन कर वह सो गया । सोते समय उसने गन्नों को बांधकर झोली में डाला तथा अपने तकिया के पास रखकर वह सो गया । उस समय वहां कुछ निठल्ले लोग थे । वे लोग गन्ने निकालकर खा गए तथा उनके पास जो आधी जली हुई लकडियां थीं, उन्हें बांधकर उन लोगों ने झोली में रख दीं ।
सवेरे वह ब्राह्मण उठ गया । नहाकर वह इस विश्वास के साथ राजसभा में गया कि उसकी झोली में गन्ने हैं । राजदरबार भरा हुआ था । भोजराजा अपने सिंहासनपर विराजमान थे । कालिदास एक उच्चासनपर बैठे थे । अन्य सम्मानित अतिथि भी उपस्थित थे । ब्राह्मण घबराते हुए धीरे-धीरे आगे आया एवं उसने राजा को साष्टांग प्रणाम किया । वह बोला, ‘‘ऐसा कहते हैं कि महाराज, राजा, देवता तथा गुरु के पास खाली हाथ नहीं जाते । इसलिए मैं ने आपके लिए यह तुच्छ उपहार लाया है ।’’ कृपया उसे आप स्वीकार करें ।’’ ऐसा कहकर उसने अपनी झोली की गांठ निकाल दी । उसने देखा कि गन्ने के स्थानपर आधी जली हुई लकडियां थीं ! ब्राह्मण घबरा गया । इसका स्पष्टीकरण देने के लिए उसके मुंह से एक शब्द भी नहीं निकल सका । यह राजा का अपमान था । राजदरबार के सभी लोग ‘ब्राह्मण को दंड दें’ की गर्जना करने लगे ।
अभी तक कालिदास शांत बैठे थे । वे खडे होकर बोले, ‘‘राजदरबार के लोगो, शांत रहें । आप जितना समझते हो यह ब्राह्मण उतना दोषी नहीं है । वह धर्म-कर्म को जानता है; परंतु वह निर्धनता से पीडित है । वह बेचारा अपनी दुर्दशा अपने मुंह से नहीं बता पा रहा है । उसकी लाई हुई जली लकडियां उसकी निर्धनता की प्रतीक हैं । ये लकडियां आधी जली हुई हैं एवं आधी वैसी ही हैं इसका अर्थ है, यह ब्राह्मण निर्धनता में ठीकसे जल भी नहीं पा रहा है तथा ठीक से जीवित भी रह नहीं पा रहा है ! ऐसी अवस्था बिल्कुल असहनीय है ! इन जली लकडियों से यह अवस्था प्रकट हो रही है । इसलिए राजा उसे धन देकर उसकी चिंता का अंत करें ।’’
कालिदास का यह भाष्य सुन समस्त राजदरबार स्तंभित हो गया । कोई उनके भाष्य का खंडन नहीं कर सका ! स्वयं भोज राजा को भी कालिदास के मत से सहमत होना पडा । उन्होंने कुछ मुहरें हाथ में लेकर ब्राह्मण के वस्त्र में डाल दिए । निर्धन ब्राह्मण सम्मान सहित एवं भरी हुई झोली लेकर वापस गया । उसने कालिदास को आभार प्रदर्शित किए ।
बच्चो, इस कथा से यह हमें अवश्य समझमें आ गया है कि जो इमानदारी से कृत्य करता है, सदैव उसकी विजय होती है !