‘वैष्णव जन तो’ ये पावन पंक्ति लिखनेवाले भक्त शिरोमणी संत नरसी मेहता !
भगवान का नाम होश खोकर सुंदरता से आलापना ही उनकी चाह, ब्रह्मानंद था । भजन गाते केदार राग में वे रंग जाते । इस राग की रसमोहिनी से प्रत्यक्ष श्रीकृष्ण उन्हें अंकित हुए थे । इस राग से उन्होंने अनेकों के दुख दूर किए तथा कितने ही लोगों का सुख बढाया था । राग के स्वरों से सर्पदंश हुए एक हरिजन बालक के प्राण वापस आए थे । एक बार एक भला गृहस्थ ब्राह्मण नरसी के पास आया । बेटी की शादी हेतु धन कहां से लाया जाए यह चिंता उसे सता रही थी । नरसी की महती उसने सुनी थी । वह इस भक्तश्रेष्ठ की शरण में आया । नरसी ने उससे पूछा, ‘‘कितना धन चाहिए ?’’ ब्राह्मण ने डरते डरते उत्तर दिया, ‘‘५०० रुपये.’’ वे साहूकार के घर गए । लोभी तथा चाणाक्ष साहूकार को नरसी का भक्ति वैभव उसे मालूम था । उनके केदार राग की कीर्ती उसने सुनी थी । उसने कहा, ‘‘पैसे देता हूं; किंतु धरोहर क्या रखोगे ?’’ साहूकार ने एक मार्ग सुझाया, ‘‘तुम्हारा केदार राग धरोहर रखो । पैसा देता हूं । ’’
संत नरसी मेहता के पास वह ही एक मूल्यवान चीज थी । फिर भी ‘अब श्रीकृष्ण के प्रत्यक्ष दर्शन से वंचित रहुंगा । जीवन का सर्वश्रेष्ठ आनंद खो बैठुंगा ’, यह विचार उनके मन में नहीं था । उन्होंने कहा, ‘‘केदार राग धरोहर के रूप में रखो; किंतु ब्राह्मण को धन दो । ’’ ‘ ब्याजसमेत पैसा वापस होने तक नरसी केदार राग भूले से भी गाएगा नहीं, ’, यह प्रमुख शर्त थी । मंगल कार्य संपन्न हुआ । उस आनंद के सामने अपने नुकसान की खंत संत नरसी को नहीं लगी । केदार राग के बिना भजन, कीर्तन शुरू था; किंतु मजा नहीं था, मन लग नहीं रहा था । भगवान के प्रत्यक्ष दर्शन बिना हृदय की प्यास बुझ नहीं रही थी । दिन-पर-दिन निकल गए; किंतु धन नहीं मिल रहा था । साहूकार का कर्जा नहीं उतर रहा था तथा केदार राग बंधमुक्त हुए बिना नरसींको शांति नहीं मिल रही थी । उसी समय निंदकों ने भी उनकी भक्ति झूठी होने के आरोप किए ।
राजा द्वारा नरसीं को बुलाया गया । उनकी भक्ति की परिक्षा लेना तय हुआ – ‘राजमहल के एक कक्ष में श्रीकृष्ण की एक मूर्तिरखी गई । मूर्ति के हाथ में एक पुष्पहार दिया गया । उस मूर्ति के आगे नरसीं अपना भजन, कीर्तन करें । श्रीकृष्ण सजीव होकर नरसीं के गले में पुष्पहार पहनाए । यदि यह बात विशिष्ट कालावधि में घटित नहीं हुई, तो नरसी के उपर लगाए आरोप सही मानकर शासन किया जाएगा । ’ यह राजाज्ञा नरसीं को सुनाई गई । नरसी अविचल थे ! उन्होंने कहा, ‘‘प्रभू की इच्छा होगी वैसा ही होगा । ’’
नरसीं ने श्रीकृष्ण के सामने आसन जमाया, टाळवीणा ली । ‘नरसीं की भक्ति सच्ची अथवा निंदकों की आसुरी शक्ति सच्ची ’, यह निर्णय लगना था । नटनागर को भक्तों की परिक्षा लेने का शौक ! नरसीं हेतु प्रकट होना, श्रीकृष्ण के लिए असंभव थोडे ही था ! केदार राग आलापे बिना श्रीहरी अपनी जग हसे न हिले, क्या संत नरसी मेहता की साधना, भक्ति इतनी लूली-लंगडी, दुबली थी ? समय आगे-आगे जा रहा था । बीच रात का समय आया । नरसीं की कसौटी का क्षण दूर नहीं था । विरोधकों की आशाएं जागृत हुई । उसी समय नगरी में चमत्कार हुआ । साहूकार के दरवाजेपर हलकी सी थपकी हुई । नरसी मेहता की आवाज उसे सुनाई दी, ‘‘कृपा कर के दरवाजा खोलिए ।’’ साहूकार ने स्वागत किया । नरसीं ने ब्याज एवं मूल रखा तथा कहा, ‘‘पैसे वापस करने में देर हुई । क्षमा करना । ‘केदार’ राग मुक्त हुआ ऐसी रसीद दो । ’’ साहूकार ने पैसे लिए तथा करारपत्र निकाला । पैसा पहुंचने के हस्ताक्षर कर कागज संत नरसी मेहता को दे दिया ।
इधर भजन करते संत नरसी मेहता ने ऐसे ही आंख खोलकर कृष्णमूर्तिकी तरफ देखा । उतने में एक कागज हलके से उनके सामने आया । ब्याज-मूल पहुंचने का साहूकार का हस्ताक्षर किया करार पत्र देंखकर नरसी अचंभित हुए ! उनके आनंद की सीमा नहीं रही । श्रीकृष्ण की लीला अगाध थी । उनका केदार मुक्त हुआ था ! नरसीं ने केदार राग में भजन आलापना आरंभ किया । केदार के स्वरों से एक अलग ही दिव्य स्वरभाव विश्व निर्माण हुआ । श्रीकृष्ण की मूर्ति की चारों ओर एक तेजोवलय निर्माण हुआ । निंदकों का दिल धक से रह गया ! नरसीं की आखों से प्रेमाश्रू बहने लगे । इतनी देर जड अचेतन श्रीकृष्ण मूर्ति सजीव हो गई तथा अपने हाथ की पुष्पमाला नरसीं के गले में डालने हेतु आगे बढने लगी ।
केदार की स्वलहरों से प्रसन्न हुए, भक्तों की लाज रखनेवाले गिरधर नागर अपने भक्त के गले में माला पहनाकर क्षणार्ध में अंतर्धान हो गए !
– डॉ. स्वरूपा महेंद्र कुर्डेकर