स्वामी विवेकानंदजी का बाल्यावस्था का नाम ‘नरेंद्र’ था । ‘विवेकानंद’ यह नाम उन्होंने आगे चलकर धारण किया । बचपन में नरेंद्र के खेल-कूद में ही लगे रहने के कारण उसके पिता दुःखी थे ।
बचपन में नरेंद्र नटखट थे । वे खेल-कूद में ही खो जाते थे । नरेंद्र के पिता कलकत्ते के एक विख्यात अधिवक्ता (वकिल) थे । एक दिन उन्हें न्यायालय से घर आने में विलंब हुआ । उस समय भी नरेंद्र बाहर खेल रहा था । उन्होंने पत्नी को बुलाया और नरेंद्र की ओर अंगुली निर्देश कर कहा, ‘‘मुझे नहीं लगता कि आप इस बच्चे की ओर ध्यान दे रही है । वास्तव में यदि आप ध्यान दे रही होती तो, आप उसे समझाती ।’’ यह सुनने के उपरांत माताजी नरेंद्र को घर लेकर आयी ।
धर्म-अधर्म के युद्ध में भगवान श्रीकृष्ण समान सारथी होने का व्यापक ध्येय माता ने बच्चे के सामने रखना
रात में भोजन के उपरांत सभी सदस्य सो गए । परंतु नरेंद्र और उसकी मां जगे थे । बिना कुछ बोले माताजी नरेंद्र को लेकर गीता बतानेवाले भगवान श्रीकृष्ण के बडे चित्र के सामने आकर खडी हो गई । ‘भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को गीता बता रहे है’ इस चित्र में दिखाए दृश्य को देखकर उसे आधार लगता था । माता ने नरेंद्र से पूछा, ‘‘बेटे तुम आगे जाकर कौन बनना चाहते हो ?’’ नरेंद्र ने तुरंत उत्तर दिया, ‘‘टांगेवाला !’’ माता ने पूछा, ‘‘टांगेवाला क्यों ?’’
तब वह आनंदित होकर बोला, ‘‘मां, देखो ! मेरी दृष्टि के सामने चार घोडे लेकर जा रहा और उंचे स्थानपर बैठा हुआ वह टांगेवाला है । वह मुझे संकेत दे रहा है कि क्या यह लगाम तुम्हे तुम्हारे हाथ में चाहिए ?’’ नरेंद्र को पुचकारते हुए मां ने बताया, ‘‘बेटे, मूलतः ही हमारा ध्येय व्यापक होना चाहिए । तुम्हे टांगेवाले का, लगाम का और घोडों का आकर्षण है न ? तब ध्यान से देखो । सामने के चित्र में भगवान श्रीकृष्ण भी सारथी ही (टांगेवाला ही) है; परंतु किसके ? अधर्म के विरोध में लढने के लिए सिद्ध हुए अर्जुन के !’’
माता ने व्यापक ध्येय की तडप नरेंद्र के मनमें जागृत करना तथा उसे भी अपनी मां की व्याकुलता समझना
माता ने नरेंद्र से कहा, ‘‘बेटे केवल व्यापक ध्येय की आवश्यकता नहीं होती, तो उसकी प्राप्ति के लिए प्रयास आवश्यक हैं और उसके पहले शिक्षा भी उतनी ही महत्वपूर्ण है । क्या ज्ञान के बिना सीख संभव है ? तो अब महत्वपूर्ण क्या होगा ? सतत अपने ध्येय की तडप ! अपना ध्येय अपने मनपर अंकित करो । परंतु यह कार्य तुम अभी नहीं कर सकते । इसलिए उचित समय आनेतक तुम तुम्हारा संपूर्ण ध्यान पढाई की ओर लगाओ । नरेंद्र माता के कहने का अर्थ पूर्णतः नहीं समझ सका; परंतु उसे उसकी आर्तता समझ में आ रही थी । नरेंद्र की माता ने उसके मन में इस व्यापक ध्येय का बीज बोया था । समय के बीतते हुए नरेंद्र की शिक्षा पूरी हुई । उसने नौकरी ढुंढने के लिए सर्वत्र प्रयास किए । परंतु उसे मन के अनुरुप नौकरी नहीं मिली ।
नरेंद्र की रामकृष्ण परमहंस से भेंट होनेपर उन्होंने उसे धर्मप्रसार का कार्य सौंपना और केवल भारत में ही नहीं, अपितु पश्चिमी देशों में भी ‘सनातन धर्म’ की ध्वजा फहराना ।
एक बार नरेंद्र का मित्र उन्हें रामकृष्ण परमहंस के पास लेकर गया । रामकृष्ण परमहंस उन्हें देखकर ही कह पडे, ‘‘कहां थे तुम इतने दिन ? मैं कितने दिनों से तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहा हूं !’’ रामकृष्णजी ने उनपर कृपा की और उन्हें धर्मप्रसार का महान कार्य सौंप दिया । नरेंद्र ने (स्वामी विवेकानंदजी ने) केवल भारत में ही नहीं, अपितु पश्चिमी देशों में भी ‘सनातन धर्म’की ध्वजा फहरायी ।
– श्री. प्रसाद म्हैसकर