स्वामी विवेकानंदजी की अपने गुरु के प्रति नि:स्वार्थ भक्ति दर्शानेवाली प्रेरक कथा !

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स्वामी विवेकानंदजी ने देवी जगदंबामाता के पास केवल ‘ज्ञान, भक्ति एवं वैराग्य’ की मांग की थी । यह क्यूं किया, इसका स्पष्टीकरण देते हुए स्वामी विवेकानंदजी कहते हैं, ‘संसार में रहनेवाले सैकडो विचार मेरे मन में भरे रहते थे । पहले की तरह धन कमाने हेतु घर से बाहर निकल पडा । अनेक प्रयास कर इधर-उधर घूम रहा था । एक एटर्नी के कार्यालय में थोडा-बहुत कार्य कर साथ ही कुछ पुस्तकों का अनुवाद कर कुछ धन कमाया तथा बडी कठिनाई से दिन कटने लगे थे; परंतु स्थायी तौरपर कुछ कार्य प्राप्त नहीं हुआ । अतएव मां एवं भाई के पोषण का स्थायी प्रबंध नहीं हुआ । कुछ दिनों पश्चात मन में विचार आया कि ईश्वर ठाकुरजी के (रामकृष्ण परमहंस) कथनानुसार करूंगा, इसलिए मां एवं भाई को अन्न-वस्त्र के अभाव के कारण होनेवाले दुःख दूर करने हेतु उनसे विनती कर उनकी ओर से प्रार्थना करवा लूंगा । मेरे कारण ऐसी प्रार्थना करने के लिए वे कभी भी अस्वीकारकृत नहीं करेंगे । ऐसा विचार कर शीघ्र ही मैं दक्षिणेश्वर को पहुंचा तथा ठाकुरजी के पास हठ कर पुनःपुनः उन्हें कहने लगा, ‘मां एवं भाई के आर्थिक कष्ट दूर करने हेतु आपको जगन्माता के समक्ष प्रार्थना करनी ही होगी ।’ ठाकुरजी ने उत्तर दिया, ‘पुत्र, यह बात मैं माता को नहीं बता सकता । तू ही स्वयं माता को यह बात क्यों नहीं बताता ? क्या तू माताजी को नहीं मानता ? अतएव इतने कष्ट तू भुगत रहा है ।’ मैंने बता दिया, ‘मैं तो माता को पहचानता भी नहीं हूं; आप ही मेरे लिए उन्हें बताइए । आपको बताना ही पडेगा । वैसा किए बिना मैं आपको बिलकुल नहीं छोडूंगा ।’ ठाकुरजी ने प्रेमपूर्वक उत्तर दिया, ‘अरे, कितनी बार मैंने माता को बताया है कि माता, नरेंद्र के दुःख-कष्ट दूर कर; तू उसे नहीं मानता, अतएव माता सुनती नहीं है । ठीक है, आज मंगळवार है; मैं बताता हूं कि आज रात्रि को तू कालीमंदिर में जाकर माता को प्रणाम कर । तू जो कुछ मांगेगा,  माता तुझे वह अवश्य ही प्रदान करेगी । मेरी माता चिन्मयी ब्रह्मशक्ति है । उसने अपनी इच्छा के अनुसार इस जगत को जन्म दिया है । उसकी इच्छा हो, तो उसके लिए क्या करना असंभव है ?’

‘मेरा दृढ विश्वास था कि यदि ठाकुरजी ने इस प्रकार से सूचित किया है, तो उनके प्रार्थना करते ही निश्चित रूप से मेरे सभी दुःख दूर होंगे । अत्यंत बेचैन होकर मैं रात्रि की प्रतीक्षा करने लगा । धीरे धीरे रात्रि होने लगी । एक प्रहर बीत जाने के पश्चात ठाकुरजी ने मुझे कालीमंदिर में जाने के लिए कहा  । मंदिर में जाते-जाते एक प्रकार की गहरी नशा मुझपर छा गई, मेरे पांव लडखडा ने लगे तथा क्या मैं माता को वास्तव में देख सकूंगा एवं उनके मुंख से निकलेवाले शब्द सुन सकूंगा इस प्रकार के स्थिर विश्वास के कारण अन्य सभी विषयों को भूलकर मैंने मेरा मन अत्यंत एकाग्र एवं तल्लीन किया तथा उसी बातपर विचार करने लगा । मंदिर में उपस्थित होनेपर देखा कि वास्तव में  माता चिन्मयी हैं, वास्तव में  वह जीवित हैं साथ ही अनंत प्रीति एवं सौंदर्य का उत्पत्तिस्थान हैं । भक्ति एवं प्यार से हृदय उछलने लगा; व्याकुल होकर पुनःपुनः प्रणाम कर कहता गया, ‘माता, मुझे विवेक, वैराग्य, ज्ञान एवं भक्ति प्रदान करें,  वह भी ऐसे कि मुझे निर्विघ्न रूप से निरंतर आपका दर्शन प्राप्त होता रहे ।’ हृदय शांति से भर गया ।  सारा जगत पूरीतरह अदृश्य हो गया केवल  माता ही मेरे हृदय में व्याप्त हो गई  ।

पुनः ठाकुरजी के पास पहुंचते ही उन्होंने पूछा, ‘क्या संसार की न्यूनता दूर करने हेतु तुमने माता को प्रार्थना की ?’ उनके प्रश्न से विस्मित होकर मैंने बताया, ‘नहीं महाराज, मैं भूल गया । अब मैं क्या करूं ?’ उन्होंने उत्तर दिया, ‘जाओ, पुनः जाओ एवं प्रार्थना करो ।’ पुनः मैं मंदि रमें गया । माता के सामने उपस्थित होनेपर पुनः मोहित होकर सबकुछ भूल गया एवं पुनःपुनः प्रणाम कर ज्ञान-भक्ति प्राप्त होने हेतु प्रार्थना कर लौटकर आया । ठाकुरजी ने हंसते हंसते पूछा, ‘क्या इस समय तूने बताया ?’ पुनः विस्मित होकर मैंने उत्तर दिया , ‘नहीं महाराज, माता का दर्शन होते ही एक दैवी शक्ति के प्रभाव के कारण सभी बातें भूलकर केवल ज्ञान-भक्तिलाभ के विषय में ही मैंने बताया । अब क्या होगा ?’ ठाकुरजी ने बताया, ‘वाह रे पुत्र, क्या तुमने स्वयं को थोडा संभालकर यह प्रार्थना की ! यदि संभव हो, तो पुनः एक बार जाकर वह बातें बताकर आओ । जाओ, शीघ्र जाओ ।’ लौटकर पुनः मंदिर में गया; मंदिर में प्रवेश करते ही अत्यंत शरम से मेरा हृदय भर गया । विचार करने लगा कि  वास्तव में क्षुद्रसी यह  बात माता को  बताने हेतु आया था । यह तो ठाकुरजी के कथनानुसार ‘राजा को प्रसन्न कर लेनेपर उसके पास कद्दु मांगने जैसी मूर्खता होगी ! क्या मेरी बुद्धि इतनी हीन होगई है! शरम एवं घृणा से उमडकर माता को पुनःपुनः  प्रणाम कर कहने लगा, ‘माता, मुझे अन्य कुछ नहीं चाहिए, केवल ज्ञानभक्ति प्रदान करें ।’ मंदिर के बाहर  आनेपर मन में विचार आया कि  निश्चित ही यह ठाकुरजी की लीला है । अन्यथा तीन-तीन बार माता के  पास जानेपर  कुछ भी बताने में असमर्थ रहना । तदुपरांत ठाकुरजी को मैंने अनुरोध से बताया कि निश्चित रूप से आपने ही मुझे ऐसे मोह में डाल दिया है, अब आपको ही बताना पडेगा कि मेरी मां एवं भाई को  अन्न वस्त्र का अभाव  न रहे । उन्होंने उत्तर दिया  ‘अरे, इस प्रकार की प्रार्थना मैं किसी के लिए  कभी भी नहीं कर सका । मेरे मुंह से इस प्रकार की प्रार्थना बाहर निकलती ही नहीं है । तुझे मैंने बताया था कि माता के पास जो कुछ मांगेगा, वहीं तुझे प्राप्त होगा । तू माता के पास मांग न सका । तेरे भाग्य में सांसारिक सुख नहीं है, उसके लिए मैं क्या कर सकता हूं ?’ मैंने बताया, ‘महाराज, यह कुछ नहीं चलेगा । मेरे लिए आपको यह बात बतानी ही होगी; मेरा दृढ विश्वास है कि आपके कहनेपर मेरी मां तथा भाई के दुःख शेष ही नहीं रहेंगे । इस प्रकार जब मैं बारबार उनके पीछे पडा, तो उन्होंने बताया, ‘ठीक है, उन्हें खुरदरे अन्नवस्त्र की कभी भी न्यूनता प्रतीत नहीं होगी ।’

 सारांश : चित्तशुद्ध रहनेवाला उपासक मांग करेगा, तो केवल परमार्थ की ही ! जनकल्याण की ही ! तनिक भी स्वार्थ का अंश उसकी मांग में नहीं होगा । ऐसे उपसकों की इच्छापूर्तिद्वारा ही जगत का कल्याण  निःसंशय होगा !

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