मन:शांति

अनेक महापुरुषोंद्वारा बताएनुसार आचरण कर थका हुआ एक युवक स्वामी विवेकानंदजी के पास आया और उनसे कहने लगा, ‘‘स्वामीजी, मैं घंटोतक बंद कक्ष में (कमरे में) बैठकर ध्यानधारणा करता हूं । परंतु मन की शांति का अनुभव नहीं करता ।’’ यह सुनकर स्वामीजी बोले, ‘‘सबसे पहले तुम्हारे कक्ष का द्वार खुला रखो । अपने आस-पास रहनेवाले दुःखी, रोगी तथा भूखे लोगों को ढूंढो । अपनी क्षमतानुसार उनकी सहायता करो ।’’ इसपर उस युवक ने प्रतिप्रश्‍न किया, ‘‘किसी रोगी व्यक्ति की सेवा करते हुए यदि मैं ही बीमार पडा तो ?’’

विवेकानंद ने कहा, ‘‘तुम्हारी इस कुशंका से मेरे यह ध्यान में आया है कि तुम्हें प्रत्येक अच्छे कार्य में कुछ ना कुछ अनिष्ट दिखता हैं । इसीलिए तुम्हें शांति नहीं मिलती । शुभकार्य को विलंब नहीं करते तथा उनके दोष भी नहीं निकालते । यही मनःशांति प्राप्त करने का निकटतम मार्ग है ।

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