आषाढ कृष्ण पक्ष षष्ठी, कलियुग वर्ष ५११५ (२८.७.२०१३) को मैं मुंबई में रेलगाडी से यात्रा कर रही थी । रेलगाडी में मेरे सामने दो परिवार बैठे थे । दोनों परिवार के एक-एक बच्चे थे । दोनों बच्चे अपने मांता-पिता के साथ खेल रहे थे । खेलते-खेलते एक बच्चे ने घूंसा लगाने की भांति अपने हाथ की मुट्ठी अपने पिता के सामने लायी । कुछ क्षण पश्चात, दूसरे बच्चेने भी पिताजी के मुखकी ओर बंदूक की नोक कर दी गोली मारने का नाटक किया । किंतु, उन माता-पिताओं में से किसी ने भी उन्हें नहीं टोका इसके विपरीत वे बच्चों को हंस कर प्रतिसाद देरहे थे ।
यह दृश्य देखनेपर ऐसा लगा कि यह सब आजकल के चलचित्रों का ही दुष्परिणाम है ! अनेक चलचित्रों में द्वारा हिंसक वृत्ती का प्रदर्शन दिखाया जाता है । मारपीट, एक-दूसरों की हत्या करना, दंगे करना -फसाद और आगजनीग लगाने जैसे दृश्य खुले आम दिखाए जाते है । उसका दुष्प्रभाव बालकों के कोमल मनपर पडता है और वे भी हिंसा की ओर चल पडते हैं । पूर्व काल में लडके अपने माता-पिता को केवल नमस्कार करते थे; परंतु अबके बच्चे पिता के सामने बंदूक की नली रखने का है, इससे ज्ञात होता है की, समाज की नैतिकता कितनी गिर गई है, यह इसमें से ज्ञात होता है ।
कैसे कह सकते हैं कि ये बच्चे बडे होकर हत्या, मार-पीट नहीं करेंगे । कल यदि इन्हीं बच्चों ने माता-पितापर असली बंदूक से गोली चला दी तो उसमें कोई आश्चर्य नहीं होगा ! ‘पुत्रद्वारा माता-पिता की हत्या’, ऐसे अनेक समाचार आप तो अपने समाचार में पढे भी होंगे । अनुचित कार्य करने के लिए माता-पिता से बढावा मिलने के कारण ही आज की पिढी बिगडती जा रही है !
‘संस्कार’का अर्थ क्या है, यही आजकल के बच्चों को पता नहीं । माता-पिता को ही बच्चों को संस्कारित करना आवश्यक है । आगे की पीढी संस्कारित करने के लिए अब एकमात्र विकल्प ‘हिंदु राष्ट्र’ है !
– श्रीमती नम्रता दिवेकर, पनवेल.