संपूर्ण जगत् जब शांत सोया हुआ होता है, तब रामकृष्ण परमहंस निर्जन घने वन में वृक्ष के नीचे ध्यानमग्न होकर कालीमाता की उपासना करते थे । रामकृष्ण का भतीजा हरिदा के मन में प्रश्न उभरता था, ‘प्रति रात्रि रामकृष्णजी कहां जाते हैं ? क्या करते हैं ?’ एक रात्रि हरिदा रामकृष्णजी के पीछे-पीछे गए । रामकृष्णजी घने वन में घुस गए । उनके हाथ में न तो दीया था, न तो मोमबत्ती । रामकृष्णजी ने आंवले के पेड के नीचे पद्मासन लगाया एवं नेत्र मूंद लिए । इससे पूर्व उन्होंने गले में पहना हुआ जनेऊ भी केसरी वस्त्रोंसहित उतार दिया । यह देख हरिदा को आश्चर्य हुआ । सूर्योदयतक रामकृष्णजी अविचल बैठे रहे । कुछ समय उपरांत उन्होंने यज्ञोपवित (जनेऊ) धारण किया । सूर्योपासना की । हरिदा यह सब देख रहे थे । रात्रि से अस्वस्थ करनेवाला प्रश्न उसने किया, ‘‘आप उपासना के समय जनेऊसहित सभी वस्त्र क्यों उतारते हैं ? यह पागलपन नहीं लगता क्या ?” उसपर रामकृष्णजी बोले, ‘‘हरिदा, ईश्वरतक पहुंचने के मार्ग में अनेक बाधाएं आती हैं । मैं जब जगन्माता का ध्यान करता हूं, तब द्वेष, मत्सर, भय, अहंकार, लोभ, मोह, जाति का अभिमान-जैसी अनेक बातों का त्याग करने का प्रयास करता हूं । नहीं तो ये सभी बातें मन में कोलाहल मचाती हैं । जनेऊ अर्थात् जाति का अभिमान, ज्ञान का अहंकार, वह भी दूर करना आवश्यक है न ! अहंकार की बाधाएं दूर करते हुए मुझे वहां (साध्यतक) पहुंचना है ।’’
बच्चों, साधना में अहंकार की बाधा बहुत बडी है । अहंकार के कारण हम ईश्वर से दूर जाते हैं । अतः ‘मैं’, ‘मेरा’ का त्याग करना होगा । ऐसा करने से ही हम सर्वव्यापी बन जाते है एवं ईश्वर को यही अपेक्षित है ।