बच्चो, आप स्वामी विवेकानंदजी का नाम जानते होंगे । वे रामकृष्ण परमहंस के परम शिष्य थे । उनकी अध्यात्म तथा धर्म प्रसार में बहुत अधिक रुचि थी । वे सारा जीवन अध्यात्म का प्रचार-प्रसार करते रहे । देश में ही नहीं बल्कि विदेश में भी उनके प्रवचनों में भीड उमड पडती थी । अमेरिका की जनता तो उनकी वाणी से अति प्रसन्न हो जाती थी । एक बार एक गृहस्थ उनके पास आया और कहने लगा, ‘‘मुझे बचाइए, मेरे अवगुणों ने मेरा जीना कठिन कर दिया है । मैंने बहुत प्रयत्न किए; परंतु बुरी आदतें मेरा पीछा नहीं छोडती । अब मैं क्या करूं मुझे बताइए ।” यह कहते-कहते वह रो पडा ।
उन्होंने अपने एक शिष्य को बुलाकर उसके कान में कुछ कहा । कुछ समय पश्चात विवेकानंद उस व्यक्ति को साथ लेकर एक उपवन में घूमने गए । मार्ग में देखते क्या हैं कि एक शिष्य वृक्ष से लिपटकर बैठा है और वृक्ष को पैर से मारे जा रहा है तथा वृक्ष से निरंतर कह रहा है, ‘‘अरे, मुझे छोड ! अरे, मुझे छोड !” उस व्यक्ति ने कहा, ‘‘मुझे तो यह पागल लगता है । इसने स्वयं वृक्ष को पकड रखा है और कहता है मुझे छोड ।” इसपर विवेकानंद ने हंसते हुए कहा, ‘‘मुझे तो आपकी दशा ऐसी ही लगती है । आपको ऐसा नहीं लगता क्या ? आपने ही बुरी आदतों को पकड रखा है और तंग होते हैं तथा कहते हैं बुरी आदतें मुझे छोडती नहीं ।’’ यह सुनकर वह व्यक्ति लज्जित हो गया ।
कुछ दूर आगे गए, तो एक माली पौधों में खाद डाल रहा था । खाद से बहुत दुर्गंध आ रही थी । उस व्यक्ति ने नाकपर रूमाल रख लिया । विवेकानंद हंस पडे । थोडा और आगे बढे, तो अनेक पुष्पों में रंग-बिरंगे फूल खिले थे । उनसे मंद-मंद सुगंध आ रही थी । उस गृहस्थ ने भरपूर सुगंध ली और प्रसन्न हो गया । विवेकानंद अब भी मंद-मंद मुस्कुरा रहे थे ।
गृहस्थ ने सोचा, ‘मैं इतनी बडी समस्या लेकर आया हूं और ये हंस रहे हैं । ये पागल हैं क्या ? कहीं मेरा उपहास तो नहीं कर रहे हैं ।’ अंत में उससे रहा नहीं गया उसने पूछ ही लिया, ‘‘महाराज आप हंस क्यों रहे हैं ? मुझसे कोई चूक हो गई क्या ?’’ तब विवेकानंद ने कहा, ‘‘ये फूल-पौधे हमसे कितने पिछडे हुए हैं, फिर भी ये खाद से मिलनेवाली दुर्गंध को सुगंध में परिवर्तित कर देते हैं । अपने पास तनिक भी सुगंध नहीं रखते, सब बांट देते हैं । ये किसी भी परिस्थिति में झूमते रहते हैं । टूट जानेपर भी सुगंध बखेरते रहते हैं । वहीं यह बुद्धिमान मानव अपने अवगुणों को गुणों में परिवर्तित नहीं करता । थोडे से संकट में मनुष्य घबरा जाता है ।’’ यह सुनकर गृहस्थ को बात समझ में आ गई और वह अपने घर चला गया ।
बाल मित्रो, यदि हमें अपनी बुराइयां छोडनी ही हैं, तो जैसे उस शिष्य का वृक्ष को छोडना आवश्यक था, उसी प्रकार हमें भी बुरी आदतें स्वयं छोडनी होंगी । ईश्वर का नामजप करने से मनुष्य की आंतरिक और बाह्य वृत्ति परिवर्तित हो जाती है । विवेकानंदद्वारा सुझाए अनुसार हम भी सुगंध फैलानेवाले फूलों की भांति अपने दुर्गुणों को सद्गुणों में परिवर्तित कर सकते हैं । विवेकानंद ने स्वयं साधना की थी । इसीलिए वह अति दुःखी मानव का जीवन परिवर्तित कर सके । आज भी कन्याकुमारी में विवेकानंदजी का स्मारक उनके तेजस्वी व्यक्तित्व का स्मरण कराता है ।