हमारा बच्चा सुसंस्कारित हो, ऐसी प्रत्येक अभिभावक की इच्छा होती है; मात्र उसके लिए इस दृष्टि से ध्यानपूर्वक प्रयत्न करना, यह उनका कर्तव्य बनता है । आपके बच्चेपर सुसंस्कार करते हुए हम भारत का भावी नागरिक बना रहे हैं, ऐसा व्यापक दृष्टिकोण प्रत्येक अभिभावक को रखना चाहिए ! उसके लिए केवल अपने बच्चेपर संस्कार करना, इतना ही उनका संकुचित ध्येय न रहकर राष्ट्रनिर्माण के लिए अप्रत्यक्ष रीति से किया गया प्रयत्न ही बन जाएगा ! प्रत्येक बच्चे के जीवन में उसके माता-पिता सबसे प्रथम तथा महत्त्वपूर्ण शिक्षक होते हैं । एक-दूसरे से प्रेम करना तथा तालमेल बिठाना प्रथम माता-पिता ही बच्चे को सिखाते हैं । बचपन से ही बच्चे को प्रोत्साहन दिया, तो कोई भी काम करना वह शीघ्र सीख जाता है । बालक को चम्मच से कैसे खाना – इससे लेकर शौच के उपरांत स्वच्छता कैसे रखें, यह सब कुछ अभिभावक ही सिखाते हैं । छोटे बच्चे को कहानियां पढकर सुनाने से उसे वाचन में रुचि निर्माण होती है । बच्चे अनुकरणप्रिय होने के कारण अभिभावकों की रुचि का ज्ञान उन्हें अपनेआप ही हो जाता है ।
आदर्श जीवन का तत्त्वज्ञान बच्चों को सिखाना आवश्यक !
बाधाओं के समय किसपर कितना विश्वास करना है इसका ज्ञान भी बच्चों को उनके अभिभावक दे सकते हैं । जीवन के विभिन्न प्रसंगों का सामना कैसे करें, यह अभिभावक उन्हें बता सकते हैं । किस परिस्थिति में वे कैसा व्यवहार करें, यह अभिभावक अपने बच्चों को बताएं । जीवन का ध्येय तथा आदर्श सर्व अभिभावक दायित्व से तथा विचारपूर्वक बच्चों के समक्ष रखें तथा इस संबंध में उनका आवश्यक मार्गदर्शन भी करें । ऐसे में उनके लिए क्या योग्य है तथा क्या अयोग्य यह अवश्य बताएं; मात्र अपने मत उनपर न लादें । साथ ही निर्णय लेने की स्वतंत्रता भी दें; अभिभावक योग्य-अयोग्य की संकल्पना अति सुस्पष्ट रूप से उनके मनपर अंकित करें कि बच्चे अयोग्य व्यवहार करने की सोचें ही नहीं ! अर्थात अभिभावकों को आदर्श जीवन का रहस्य उन्हें सिखाना चाहिए. । बच्चे को जीवन के लिए दिशादर्शन करनेवाला तात्त्विक बिंदु हो अथवा उन्हें सिखानेवाली छोटी-बडी आदतें, ये सर्व संस्कार धार्मिकता के आधारपर ही हों । आजकल अधिकांश अभिभावकों को स्वयं के जीवन के विषय में तत्त्व का ज्ञान नहीं, वह पश्चिमी संस्कृतिपर आधारित भोगवादी बन गया है । अतः उनके द्वारा बच्चोंपर भी उन्हीं विचारों तथा कृतियों के संस्कार किए जाते हैं ।
पश्चिमी संस्कृति से प्रभावित अभिभावक बच्चोंपर क्या संस्कार करेंगे ?
अधिक गुण, गुणोंकी स्पर्धा, प्रत्येक वस्तु की स्पर्धा, धन, उसके लिए कैरियर यही अभिभावकों का बच्चों की ओर देखने का दृष्टिकोण बन गया है । पश्चिमी संस्कृति के आक्रमण एवं स्वसंस्कृति के विस्मरण के कारण आजकल के लाडले बच्चे `किसी की सुनते ही नहीं’ ऐसा ही अधिकांश देखने में आता है । इसके लिए अभिभावक उन्हें अधिकाधिक समयतक विविध छंद तथा अभ्यासवर्ग में व्यस्त रखने में लगे रहते हैं । उनपर सुसंस्कार हों, ऐसी अधिकांश सुशिक्षित अभिभावकों की हार्दिक इच्छा होती है । ऐसी स्थिति में क्या करना चाहिए, उन्हें भी समझ नहीं आता ।
बच्चों को सुसंस्कारित करने के लिए उन्हें साधना का आधार दें !
ये सुसंस्कार कैसे होंगे ? बालक सदवर्तनी होने के लिए दो बातें आवश्यक हैं । एक यह कि अभिभावक स्वयं ही सदाचारी बनें तथा उन्हें अनुशासित करने के साथ ही भक्ति करना भी सिखाएं। साधना एवं उपासना का आधार हो, तो बच्चों में सद्गुण शीघ्र पनपते हैं । हठी एवं न सुननेवाले बच्चों में परिवर्तन करने की शक्ति ईश्वर के नाम में है और इसका अनुभव अनेकोंने लिया है । प्रथम अभिभावकों को भक्ति के बीज स्वयं में बोने होंगे, तभी वह बीज हमारे बच्चों में भी निर्माण होंगे । `रत्नाकर वाल्मीकि बन गया’ ऐसी कहानियां हम सुनाते हैं। अर्थात ईश्वर के नाम में बच्चों में अमूलचूल परिवर्तन करने की क्षमता है, इसका ज्ञान सर्व अभिभावकों को हो तथा सर्व अभिभावकों के माध्यम से सुसंस्कारित सद्गुणों की पीढी राष्ट को प्राप्त होकर ईश्वरीय राज्य शीघ्र स्थापित हो, यही ईश्वर के चरणों में प्रार्थना करते हैं ।