नीरा और कोयना नदी के तटपर शिवाजी महाराजजीने जो सत्ता प्राप्त `की थी, उस सत्ता को अक्षुण्ण बनाए रखने के लिए एक दृढ अभेद्य दुर्ग को निर्मित करना आवश्यक था और यह दुर्ग था प्रतापगढ । प्रतापगढ की निर्मिति ई.स.१६५७ में हुई, यह इतिहास में वर्णित है । उत्तरी सातारा जनपद में जावली तहसील में महाबलेश्वर के पश्चिम में ८ मील की दूरीपर प्रतापगढ पर्वत है । पार और किनेश्वर इन दो गावों के मध्य डोपर्या नाम के उंचे स्थानपर एक दुर्ग बनाया गया ।
महाबलेश्वर से महाड को जानेवाली गाडी से कुमरोशी गांव पहुंचने के उपरांत लगभग आधा घंटा यात्रा करनेपर मार्ग में प्रतापगढ आता है । यहां से दुर्ग जा सकते हैं । गढपर चढते समय थोडा कष्ट होता है । इस गढ के संदर्भमें कवि गोविंदजीने सुंदर काव्य की रचना की है, उसका स्मरण हो आता है ।
जावलिका यह प्रांत अशानिकी बेलकी जाली
भयानक घाटियां बैठी हैं मूंह फैलाए बन-बनमें
इस प्रकार इस जावली प्रांत में तलहटी से प्रतापगड का आरंभ होता है ।
दुर्ग के दर्शनीय स्थल
इस गढ के नीचे दायीं ओर एक कच्चा मार्ग दिखाई देता है । वहांपर दर्गा शरीफ को जानेवाला मार्ग, एक सूचना फलक दिखाई देता हैं । दर्गा शरीफ, अर्थात अफजलखान की कब्र । इस दुर्ग का एक ही महाद्वार है । जिसके नीचे एक नाला है, जो ऊपर से नीचे की ओर जल ले जानेवाला एक बरसाती नाला है । थोडीसी सीढियां चढने के उपरांत द्वारपर खडा रहा जा सकता है । दरवाजे के भीतर की ओर द्वारपालों के स्थान दिखाई देते हैं । इस बुर्ज को सोमसूत्री परिक्रमा करके देखा जा सकता है ।
अफजलखान के धोखा करनेपर शिवाजी महाराजजीने उसका वध कर दिया । उस समय ‘संभाजी कावजी’ शूरवीरने अफजलखान का मस्तक इस बुर्जमें गाड दिया, इसका इतिहास में उल्लेख है । भवानीमाता के नगाडाखाना के कक्ष की खिडकी खोलनेपर देवी का मुखमंडल दिखाई देता है। इस देवी की भी एक कथा कही जाती है । शिवाजी महाराजजीने इस देवी के लिए, प्रतिदिन शहनाई नगाडा बजाने की पद्धति प्रारंभ की थी । ‘हडप’ उपनाम के पुजारीजी देवी को प्रतिदिन पंचामृत सहित नैवेद्य चढाते थे । इस भवानी मंदिर में सभामंडप और नगाडे का कक्ष है ।
मंदिर से सौ-दो सौ पग चलने के उपरांत एक छोटा दरवाजा लगता है और वहां से मुख्य दुर्ग में प्रवेश किया जाता है । उससे आगे टूटा-फूटा एक चबूतरा है । जहां बैठा जा सकता है । वायुयान से देखनेपर प्रतापगढ का आकार तितली के समान दिखाई देता है । यह १४०० फुट लंबाई और ४०० फुट चौडाई तक फैला है । अन्य गढदुर्ग से इस गढदुर्ग की तटबंदी विशेष है । पश्चिमोतर तट ८०० फुटसे भी अधिक उंचा है । मुख्य दुर्ग में बालेकिल्ले के उत्तरपूर्व की और दो सरोवर हैं । वहां से कोयना नदी की कछार सुंदर दिखाई देती है और किले की परिक्रमा भी पूर्ण हो जाती है ।
इतिहास
१६५७ में शिवाजी महाराजजी के वीरता के कारण बीजापुर दरबार के लोग पूर्णतः असहाय हो गए । महाराजजी की शक्ति बढ रही थी । नए-नए प्रांत अपने नियंत्रण में लेकर आदिलशाही के राज्य को छोटा करने के लिए उसके टुकडे किए जा रहे थे । महाराजने चतुराई से अफजलखान का वध कर दिया । इसका सुंदर वर्णन इतिहास में मिलता है । आज भी अफजलखान की कब्र यहां दिखाई देती है । सपाट स्थानपर मचान के नीचे के तीन उतार उतरनेपर, आसपास वृक्ष चौकोर के मध्य भाग में यह कब्र है । प्रतापगढ का प्राकृतिक सौंदर्य देखने योग्य है । प्रतापगढ को विशेष महत्त्व है ।
प्रतापगढदुर्ग की दूसरी विशेषता है, अफजलखान का वध । शिवाजी राजे और अफजलखान की भेट में अफजलखानने धोखा दिया । इसी कारण महाराजजीने अफजलखान की अंतडियां खींचकर बाहर निकाल दी । सैय्यद बंडाने तलवार निकाली; परंतु जिवा महाल (शिवाजी राजा का निष्ठावंत सैनिक)के सावधान रहने के कारण उन्होंने सैय्यद बंडा को भी मार डाला ‘जिवा था इसलिए बच गया शिवा’ इस कहावत के रूप में गढ दुर्ग का इतिहास अजर-अमर हो गया । जावली में छुपके बैठे हुए शिवाजी के सैनिकों ने खान के १५०० लोगों को धूल चटा दी । यह है शिवाजी महाराजजी का ‘प्रतापगढ’, आज भी महाराजजी के पराक्रम की साक्षि देते हुए यह दुर्ग खडा है ।
पहुंचनेका मार्ग
महाड, पोलादपुर की ओर से अथवा वाई, महाबलेश्वर की ओर से आनेपर कुंभेरेशी अथवा वाद नाम का छोटासा गांव है । गढ के आग्नेय की ओर पारं नाम का गांव हैं । दोनों गांवों से प्रतापगढपर जा सकते हैं ।