‘२६.१.१९३० के दिन रावी नदी के किनारे बडी संख्या में उपस्थित भारतवासियों के सामने पंडित जवाहरलाल नेहरूने संपूर्ण स्वतंत्रता की शपथ ली और तब से लोग २६ जनवरी ‘स्वतंत्रता दिवस’के रूप में मनाने लगे । (स्वतंत्रता प्राप्ति के उपरांत यह दिन ‘प्रजासत्ताक दिन’के नाम से मनाया जाने लगा !) वर्ष १९४२ में महात्मा गांधीजीद्वारा आंदोलन का आदेश देते ही अनेक देशभक्त उस आंदोलन में सहभागी हुए । सत्याग्रहियों की बंदी के (गिरफ्तारी के) कारण कारागार भर गए । महेशदत्त दुबे, ज्वालाप्रसाद जोशी, सत्येंद्रनाथ मिश्र, ये उस समय नैनी के कारागार में दंड (सजा) भुगत रहे थे ।
जैसे २६ जनवरी का दिन समीप आने लगा, वैसे नैनी के बंदीगृह में स्वातंत्र्यवीरों में उस दिन के आयोजन के संदर्भ में विचार विमर्श होने लगा; परंतु जहां ‘वंदे मातरम्’ कहने के लिए ही मनाही थी, वहां ध्वज कहां से लाएंगे, यह सबके सामने प्रश्न था । तब सत्येंद्रनाथ मिश्र खडे हुए और सबका धीरज बंधाते हुए आश्वासक शब्दों में बोले, ‘‘मित्रो, ध्वज की चिंता न कीजिए । २६ जनवरी के दिन ध्वज उपलब्ध कराने का दायित्व मेरा । आप ठीक छः बजे सिद्ध (तैयार) रहिए । हम अपने निश्चित किए संकल्प के अनुसार ध्वजवंदन का कार्यक्रम मनाएंगे ।’’ उनकी यह बात सुनकर सब में उत्साह की लहर दौड पडी ! हर कोई उत्कंठा से २६ जनवरी की प्रतीक्षा करने लगा ।
२६ जनवरी को प्रातः समयपर सब लोग उठ गए; परंतु सत्येंद्रनाथ कहीं दिखाई नहीं दिए । इसलिए महेशदत्त और ज्वालाप्रसाद उन्हें ढूंढने के लिए निकले, तब सत्येंद्रनाथ कारागार के प्रांगण में ही एक वृक्ष के नीचे बैठे हुए दिखाई दिए । वे दोनों दूर से ही सत्येंद्रनाथ के कृत्य का अवलोकन करने लगे । सत्येंद्रनाथने सर्वप्रथम वृक्ष के पत्ते निकालकर उनका लोंदा बनाया । तदनंतर अपनी शर्ट उतारकर उसे आयताकार में फाडा । उस कपडेपर नीचे की ओर उन्होंने पत्तों का लोंदा बिखेरा, जिससे ध्वज की नीचे की पट्टी हरे रंग की बन गई । बीच की श्वेत पट्टी को वैसे ही रखा । अब ऊपर की लाल रंग की पट्टी बनानी शेष बची थी । उसके लिए उन्होंने अपने हाथ को अपने ही दांतों से जोर से काटा, जिस कारण रक्त की धारा बहने लगी । उसी रक्त से उन्होंने ध्वज की ऊपर की पट्टी रंग दी । यह दृश्य देखकर महेशदत्त और ज्वालाप्रसाद दंग रह गए । सत्येंद्रनाथके मुखमंडलपर मात्र विलक्षण समाधान झलक रहा था । इस ध्वज को सबने बडे आदर से वंदन किया । धन्य वे देशभक्त और धन्य धन्य वह भारतमाता !’
(जय हनुमान, २२.५.२०१०)