एक सत्पुरुष काशी क्षेत्र में रहते थे जिन्होंने पुराण एवं उपनिषदों का पूर्ण अध्ययन किया था ।उनका नाम ‘गणेशदास’ था । जैसे महाराष्ट्र में रामदास वैसे ही काशीक्षेत्र में गणेशदास ! रामदासजी की प्रतिज्ञाथी कि ‘यह रामकथा ब्रह्मांड भेदकर उसके पार पहुंचाऊंगा’ । वैसी प्रतिज्ञा गणेशदासजी ने भी की थी कि‘ब्रह्मांड भेदकर गणेशकथा उसके पार पहुंचाऊंगा’ । अत्यंत सत्पुरुष गणेशदासजी को चराचर में गणेशजी का ही दर्शन होता था । इसलिए उन्हें गणेशदास कहते थे । अत्यंत सत्पात्र, अंतर्बाह्य शुचि (शुद्ध) हुए, निर्मोही ऐसे वे महात्मा थे ।
गणेशदास एक बार काशी-वाराणसी क्षेत्र में घुम रहे थे, संध्या-समय बीतकर रात हो गई । गणेशदास वाराणसी में मणिकर्णिका के घाटपर घूम रहे थे । उस समय कुछ चोर वहां आ गए । उन्होंने पूछताछ की ‘‘तुम कौन हो ?’’ उस समय गणेशदासजी हंसे । वे उन्मनी अवस्था में थे । उन्हें सभी ओर गजानन दिख रहे थे । वे हंसकर बोले, ‘‘जो तुम हो सो मैं हूं ।’’ यह सुनकर चोरों को लगा, गणेशदास अपनी ही जाति के दिखते हैं ।अच्छा हुआ । उन्होंने सोचा, ‘चोरी ही करने निकले हैं, इसे भी साथ लेकर चलते हैं ।’ इसलिए उन्होंने गणेशदासजी को भी साथ ले लिया । चोरों ने एक बडे घरपर डाका डालने का सोचा । यह भी सोच लिया कि,‘गणेशदास थोडे नए हैं, इसे भीतर लेकर नहीं जाते हैं, इसे बाहर खडा करते हैं । उसके कंधे पर एक झोली है,उस झोली में थोडा सोना भरकर ले जा सकते हैं, इतना ही उसका उपयोग है!’ इसलिए गणेशदासजी को बाहर रुकाया । भीतर जाते समय कहा, ‘‘हम भीतर डाका डालने जाते हैं, यदि आपको किसी के आने की भनक लगे, तो हमें सावधान कर दीजिए ।’’ गणेशदासजी ने हां भरी । वे सभी चोर घर में गए । गणेशदासजी के चित्त में चहुं ओर गणेशजी का प्रकाश छाया था । उन्हें सर्व ओर गणपति ही दिख रहे थे ।
चोर घर में घुसे । गणेशदासजी को स्मरण हुआ कि, चोरों ने कहा था कि, किसी की भनक लगे अथवा कोई दिखे तो हमें सावध कर दो । उनकी झोली में एक शंख था, वह शंख गणेशदासजी ने बाहर निकाला और जोर से बजाया । उस घर के सभी सदस्य जग गए । देखते हैं तो चोर ! सभी चोर घबराकर भागे । गणेशदासजी को भी लेकर दौडे । चोरोंने कहा, ‘‘अरे, क्या पागल हो ! हमने तुम्हें अपनी ही जाति का समझकर साथ में लिया और तुमने क्या किया ! वह शंख क्यों बजाया ?’’ गणेशदासजी बोले, ‘‘आपने मुझे क्या बताया था ? किसी की भनक लगी अथवा किसी का दर्शन हुआ तो हमें सावधन कर दो । मैंने वही किया । क्योंकि जब आप भीतर गए, तब मुझे चहुं ओर गणेशजी ही गणेशजी दिखाई दिए ! मुझे सर्वत्र गणेशजी का ही दर्शन हुआ ।उस समय मेरा भाव जागृत हुआ और उनके स्वागतार्थ मैं ने शंख बजाया ।’’ यह सुनकर चोरों का भाव जागृत हुआ । उन्होंने हाथ के सभी शस्त्र नीचे फेंके तथा गणेशदासजी के चरणों में शरणागत हुए, उनके शिष्य बन गए ।