भारत अपनी संस्कृति के लिए पूरे विश्व में प्रसिद्ध है । भारतभूमिपर ऐसे अनेक संत और महात्मा हुए हैं जिन्होंने धर्म और भगवान की भक्ति से ईश्वरप्राप्ति की है । भारतीय संतोंने मोक्ष एवं शांति का मार्ग संपूर्ण संसार को दिखाया है । भजन और स्तुति की अतुलनीय रचनाएं कर सामान्यजन को भगवान की भक्ति सीखाई । ऐसे ही संतों और महात्माओं में संत मीराबाईजी का स्थान अत्यंत महत्त्वपूर्ण है ।
प्रारंभिक जीवन
जोधपुर के राठौर रतनसिंहजी की एकमात्र पुत्री मीराबाई का जन्म सोलहवीं शताब्दी में हुआ था । मीराबाईजी के बालमन में श्रीकृष्ण की ही छवि बसी थी । जब मीराबाई ३ वर्ष की थीं तो एक साधु उनके यहां आए । उन्होंने मीराबाईजी को श्रीकृष्ण भगवान की एक छोटी-सी मूर्ति दी । वे श्रीकृष्ण भगवान की मूर्ति को खिलातीं- पिलातीं, उनके साथ बातें करतीं और खेलतीं- कूदतीं थीं । वे श्रीकृष्ण भगवान की भक्ति में लीन होकर भजन गाती थीं ।
राजपरिवार से संबंधित होने के कारण मीराबाई की कृष्णभक्ति
न स्वीकार कर तत्कालीन राजा द्वारा उनको कष्ट पहुंचाया जाना
मीराबाई का विवाह चितौड के राजा महाराणा सांगा के पुत्र भोजराज से हुआ । कुछ वर्षों के पश्चात् उनके पति को एक युद्ध में वीरगति प्राप्त हुई, उस समय से वे एक तपस्विनी के समान विरक्त रहने लगीं तथा दिन-रात श्रीकृष्ण भक्ति में लीन रहने लगीं । पति की मृत्युके पश्चात् उनका देवर राणा विक्रमजीत सिंहासनपर बैठा । उसको राजमहल में साधु संतों का आना-जाना अच्छा नहीं लगता था । संत मीराबाई की भक्ति से त्रस्त होकर राणा विक्रमजीत ने उनपर अनेक अत्याचार किए । मीराबाई के श्रीकृष्ण प्रेम के कारण ससुराल वालोंने उन्हें मारने के लिए अनेक कपट किए पर सब विफल रहे । एकबार राणा विक्रमजीतने अपनी बहन उदाबाई के द्वारा पिटारे में सांप रखकर मीराबाई के पास भेजा । उन्होंने पिटारा खोलकर हंसते-हंसते सांप को हार के रूप में अपने गले में पहन लिया । उसी क्षण श्रीकृष्ण की कृपा से वह सांप पुष्पहार बन गया । यह समाचार सुननेपर राजा अतिशय क्रोधित हुआ ।
राजा द्वारा भेजा गए विष को मीराबाईद्वारा श्रीकृष्ण का प्रसाद समझकर
पीने से विष अमृतसमान मीठा लगना; परंतु श्रीकृष्णमूर्ति का रंग हरा होना
राजा का क्रोध गया नहीं था । कुछ दिनों के पश्चात् मीराबाई के लिए राजाने उदाबाई के हाथों विष का प्याला भेजा । मीराबाईने श्रीकृष्णजी को नैवेद्य दिखाकर उनकी मूर्ति के सामने विष को प्रसाद समझकर पी लिया । भगवान के प्रति उच्च कोटि के भाव के कारण मीराबाई को विष अमृत के समान मीठा लगा । परंतु श्रीकृष्ण की मूर्ति विष के प्रभाव से हरे रंग की दिखने लगी । अंततः अत्यंत आतुरता से मीराबाईने श्रीकृष्ण को प्रार्थना की, ‘हे कालियामर्दन श्रीकृष्ण, विष मैंने पिया परंतु आपका रंग क्यों परिवर्तित हुआ ? आपपर इस विष का परिणाम हुआ, यह देखकर मुझे अतिशय दुःख हो रहा है । मेरी यह अस्वस्थता आप शीघ्र दूर करें ।’ उसी क्षण वह कृष्ण मूर्ति पूर्ववत दिखने लगी ।
श्रीकृष्ण भक्ति- यही जीवन का ध्यास बनना
घर वालों के इस प्रकार के व्यवहार के कारण वे द्वारका और वृंदावन गईं । मीराबाई जहां जाती थीं, उनकी भक्ति के कारण उन्हें लोगों का सम्मान मिलता था । संत मीराबाई ने वृंदावन में श्रीकृष्ण की भक्ति के विषय में अनेक पद रचे । उन्हें अनेक साधू-संतों के सत्संगों का लाभ मिला । मीराबाईजी के पद और रचनाएं अत्यंत भावपूर्ण हैं । ये पद और रचनाएं राजस्थानी, ब्रज तथा गुजराती भाषाओं में हैं । मीराबाईजी ने चार ग्रंथों की रचना की – ‘बरसी का मायरा’, ‘गीत गोविंद टीका’, ‘राग गोविंद’ और ‘राग सोरठ के पद’ मीरबाई द्वारा रचे ग्रंथ हैं । इसके अतिरिक्त मीराबाईजी के गीतों का संकलन ‘मीराबाई की पदावली’ नामक ग्रन्थ में किया गया है । ‘राजस्थान की कन्या’के रूप में प्रसिद्ध संत मीराबाई द्वारका गईं तथा १५४६ में वे श्रीकृष्णरूप में विलीन हो गईं ।
मेरे तो गिरिधर गोपाल दूसरौ न कोई।
जाके सिर मोर मुकुट मेरो पति सोई।।
छांड़ि दई कुल की कानि कहा करै कोई।
संतन ढिग बैठि बैठि लोक लाज खोई।
अंसुवन जल सींचि सींचि प्रेम बेलि बोई।
दधि मथि घृत काढ़ि लियौ डारि दई छोई।
भगत देखि राजी भइ, जगत देखि रोई।
दासी मीरा लाल गिरिधर तारो अब मोई।