बच्चे एवं बडे, दोनों के ही जीवन में खेल का महत्त्व है । प्राचीन काल से तत्कालीन संस्कृति में खेल का उल्लेख पाया जाता है । कुछ लोगों का ऐसा मानना है कि खेल खेलना अर्थात समय का दुरुपयोग करना ; परंतु खेल के द्वारा प्राप्त लाभ देखेनेपर हानि की मात्रा अल्प प्रतीत होती है ।
१. बच्चों की वृद्धि एवं विकास में खेल का अधिक महत्त्वपूर्ण स्थान है !
बच्चों की सामाजिक, शारीरिक, , मानसिक, साथ ही बौद्धिक गठन एवं वृद्धि होने के लिए खिलौने अधिक ही उपयुक्त होते हैं । खेल के द्वारा बच्चे अन्य बच्चों को सहयोग करना एवं उनके साथ घुलमिलकर रहना अपने आप सीख जाते हैं; साथ ही अन्योंके साथ मिलजुलकर रहना भी सीखते हैं । धार्मिक उत्सव, पारिवारिक समारोह एवं यात्रा के कारण बच्चों को एकरूपता एवं नीरसता की प्रतीति न होकर उनमें आनंदित वातावरण का विकास होता है ।
अ. अभ्यास अथवा अन्य कृत्य के कारण आया तनाव न्यून करने के लिए खेल ही एक साधन है ।
आ. सामूहिक खेल के द्वारा संघभावना की वृद्धि होती है ।
इ. खेल के कारण कल्पना शक्ति का विकास होता है ।
ई. खेलद्वारा बच्चे हार एवं जीत का सामना करना सीखते हैं; साथ ही पराजय स्वीकार करना भी सीख जाते हैं ।
उ. खेलद्वारा नियमों का पालन करने का स्वभाव बनता है ।
ऊ. खेल के कारण कुछ मात्रा में बुद्धि, नियोजनबद्धता, निरीक्षणक्षमता जैसे गुणों की वृद्धि होती है ।
२. खेल के कारण बच्चों की मानसिक वृद्धि होने में सहायता होती है ।
साइकिल चलाना एवं अन्य मैदानी खेल खेलने के कारण बच्चों को शारीरिक व्यायाम का लाभ प्राप्त होता है एवं शरीर बलवान होने में सहायता होती है । साथ ही स्नायुओं की हलचल कुशलतापूर्वक आत्मसात होती है । बालवर्ग में खेल एवं खिलौनों के माध्यम से शिक्षा दी जाती है । खेल के कारण बच्चों की मानसिक वृद्धि होने में सहायता होती है ।
३. बच्चा खुले मन से भावना व्यक्त करने में असमर्थ रहा तो भावनाओं की अभिव्यक्ति तोडफोड करने में होती है ।
यदि बच्चा खुले मन से अपनी भावना व्यक्त करने में असमर्थ रहा तो उसकी छुपी भावनाओं की अभिव्यक्ति तोड-फोड करने से होती है । उसकी भावनाओं एवं मन के अंदर होनेवाली घुटन को खेलद्वारा तोडफोड कर मार्ग मिलता है ।
( संदर्भ : ग्रंथ – ‘संस्कार हीच साधना !’ लेखक : डॉ. वसंत आठवले, बालरोगतज्ञ )