‘संगणक तथा इससे उत्पन्न होनेवाले दुष्परिणामों को देखें तो विश्वामित्र की प्रतिसृष्टि के प्रयत्नों का ही स्मरण होता है’, यदि ऐसा कहा जाए तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी । कुछ दशकों पूर्व संगणक बुदि्धजीवी वर्ग के ही पास होते थे और इनकी गणना ऐशो आराम की वस्तुओं में होती थी; परंतु आज वह अत्यंत आवश्यक एवं जीवन का अविभाज्य अंग बन गया है । देखा जाए तो मानव को इससे होनेवाले लाभ के साथ-साथ हानि को भी अनदेखा नहीं किया जा सकता है । ऐसे ही कुछ परिणामों का विचार करने के लिए यह लेख प्रस्तुत किया गया है ।
१. संगणकीय खेलों का शरीर तथा मनोधारणापर विपरीत परिणाम होना
दिनोदिन शहर में निवासी क्षेत्र के बढे हुए भाव को ध्यान में रखते हुए थोडे-बहुत प्रमाण में उपलब्ध मैदानों को दुय्यम महत्त्व प्राप्त हुआ तथा उनकी संख्या घट गई है । परिणामस्वरूप मैदानी खेलों का स्थान बैठे खेलों ने ले लिया । बैठे खेलों में भी विविध संगणकीय तंत्रज्ञान की उपलब्धता के कारण संगणकीय खेलों का अधिक प्रमाण में उपयोग होने लगा । इसका शरीर तथा मनोधारणापर विपरीत परिणाम हुआ ।
२. जागतिकीकरण के दुष्परिणाम – अभिभावकों का व्यापारीकरण
आज विभक्त कुटंबपद्धति में माता-पिता दोनों ही कमाते हैं । घर में बच्चे अधिकतर अकेले रहते हैं । उनकी ओर ध्यान देने के लिए समय नहीं होता है, इसके बजाय उन बच्चों की कोई भी उचित-अनुचित हठ को बालमानसशास्त्र के अनुसार मान्यता दी जाती है । बच्चों संगणक, भ्रमणसंगणक, वीडिओ गेम्स, भ्रमणभाष, डिजीटल छायाचित्रक (कैमरा), दुपहिया तथा चारपहिया गाडियां ऐसे मंहगे उपकरण अनायास ही, कभी-कभी हठ न करनेपर भी मिल जाते हैं ।
३. संगणकीय खेलों के कारण कृति के स्तरपर बहते जाना
संगणकीय खेलों के कारण बच्चे घंटों-घंटों ही नहीं, दिनोंदिन उसके सामने बैठे रहते हैं । उन खेलों में अलग-अलग स्तर (लेवल्स) पार करना तथा अगले-अगले चरण में जाना, ऐसा विचारध्यास इतना दृढ हो जाता है कि वे विद्यालय तथा महाविद्यालयीन अभ्यास, परीक्षा, अन्य कर्तव्य, सगे-संबंधियोंतक को भूल जाते हैं ।उनके मन में रात-दिन खेल का ही विचार होता है । अपनी आयुवाले बच्चों के साथ बात करते समय भी उनका खेलों के संदर्भ में तथा तदनुषंगिक तंत्रज्ञान, संगणक के सॉफ्टवेअर्स’ में ही होता है । ऐसे समय में ऐसे खेलों की ओर ‘मनोरंजन‘ के रूप में देखने की समझदारी अत्यंत ही अल्प बच्चों में होती है । अधिकांश बच्चे विचार तथा कृति के स्तरपर बह जाते हैं ।
४. अभिभावक अथवा शिक्षकद्वारा भान करवानेपर,वे उसकी ओर अनदेखा करते हैं ।
अर्थात उसकी ओर `कडी दृष्टि’ रखने का समय नहीं होता, ‘भान करवा दिया और अपना कर्तव्य समाप्त हुआ’, ऐसा लगनेवाले अभिभावक अधिक होते हैं ।
५. संगणकीय खेलों के कुछ प्रकार जान लेते हैं ।
अ. Arcade (हिंसात्मक खेल)
आ. Strategy (रणनीतिक अथवा योजनासंबंधी खेल)
इ. Racing ( स्पर्धा प्रतियोगिता के तथा अन्य)
५ अ. हिंसात्मक खेलों के कारण उस प्रकार की प्रवृत्ति बच्चों में बढने लगती है ।
प्रथम प्रकार में खेलों में प्रतिद्वंदीपर मात करने के लिए रक्तपात तथा हिंसाचार का मुक्तरूप से उपयोग किया जाता है । ऐसे खेल बचपन से (आजकल ६-७ वर्ष के बच्चे भी ऐसे खेल खेलते हैं ।) खेले जाने के कारण बच्चों के मन में क्रोध, ईष्र्या, स्वयं को कोई वस्तु सीधे मार्ग से न मिलती हो, तो हिंसात्मक मार्ग अपनाना,सतत स्वार्थी, आत्मकेंदि्रत, नकारात्मक विचार करना, अकेलापन इत्यादि बातें बहुत अधिक बढ जाती हैं ।
५ आ. मन तथा बुदि्ध को लुभानेवाले नीतिगत खेल !
अन्य प्रकार के खेलों का ऊपरी तौरपर संकट नहीं प्रतीत हो रहा होता; वह इसलिए कि इन खेलों में उपरोक्त प्रकार से हिंसाचार नहीं होता; परंतु इन खेलों में दी गई अल्पतम सुविधाओं में अपना साम्राज्य खडा करना होता है । उनमें मायावी नियोजन का (Virtual Management) भाग मन तथा बुद्धी को इतना आवाहनात्मक तथा मोहित करनेवाला होता है कि प्रथम प्रकार के खेल कुछ घंटे चलते होंगे, तो अन्य प्रकार के खेल कुछ दिनों से लेकर कुछ सप्ताह चलते हैं ।
५ इ. स्पर्धा प्रतियोगिता : स्पर्धा की प्रतियोगिताओं में गलत पद्धति से जीतना सिखाया जाना
तीसरे प्रकार में दुपहिया तथा चारपहिया गाडियों की दौड लगाई होती है ।इसमें सीधे मार्ग से प्रतिस्पर्धी को यदि हराया न जा सके, तो उसे यातायात के नियमों का उल्लंघन कर, समय आनेपर दूसरों को चोट पहुंचाकर केवल स्वयं को जिताने के लिए यह खेल खेला जाता है । इसका एक दृश्य दुष्परिणाम यह है कि बच्चे साईकिल, दुपहिया गाडी चलाते समय रास्तेपर लगी गाडियों के साथ खेल समान ही आपस में दौड लगाने के लिए यातायात के नियमों का उल्लंघन करके आगे जाने के लिए प्रयत्न करते हैं । वे अपने प्राणों को ही संकट में नहीं डालते, अपितु समाजव्यवस्था की दृष्टि से भी यह अत्यंत घातक है ।
६. अनैतिक कृत्ययुक्त संगणकीय खेलों के कारण नैतिकता की सर्व संकल्पनाएं समाप्त करना
उपरोक्त खेलों के अतिरिक्त अन्य कुछ प्रकार के खेल खेले जाते हैं । उसमें जुआ, अनैतिक कृत्य इत्यादि का समावेश है । ये सर्व बातें इन खेलों में इतनी अधिक दिखाई जाती हैं कि मानो इस निरोगी समाजजीवन का एक अविभाज्य घटक है । इन सभी के वारंवार खेलने के कारण मन में शील-अश्लील का कोई भेद नहीं रह जाता है, परिणामस्वरूप नैतिकता की सर्व संकल्पनाएं टूट जाती हैं ।
७. तंत्रज्ञान के भस्मासुर का अनुभव लेने की अपेक्षा आध्याति्मकता का पाठ पढाएं
आज पश्चिमी देश तंत्रज्ञान के भस्मासुर का अनुभव ले रहे हैं । उच्च तंत्रज्ञान की जन्मघुट्टी प्राशन करनेवाली आज की पीढी निराशा, नकारात्मकता, अनैतिकता, हिंसाचार की बलि चढ रही है । इस कारण अभिभावक तथा शिक्षक को पिस्तौल से उडा देनेवाले ६-७ वर्ष के बच्चे, हंसने-खेलने की आयु में ना समझी में वासनापभोग की बलि चढनेवाली कुमारी माताएं, दिशाहीन युवक, असुरक्षित वृद्ध यह है उच्च तंत्रज्ञान की पश्चिमी जगत को मिली देन !
८. संगणकीय खेलों के माया में लिप्त न हो जाएं !
‘मूलत: ईश्वद्वारा निर्मित यह जगत ही `माया’ है तथा इस माया में ही लिप्त न होकर ब्रह्म की ओर जाना, अर्थात ईश्वरप्राप्ति की ओर साधनाद्वारा मार्गक्रमण करना, यह मनुष्य जन्मसिद्ध ध्येय है’, ऐसा ऋषि-मुनियों ने कहा है; परंतु संगणक तथा उनके संगणकीय खेलों के विश्व यदि देखें तो ऐसा प्रतीत होता है कि कलियुग के जीव ‘साधना’ विषय की ओर ही क्यों; परंतु व्यवहारादि बातों की ओर भी ध्यान न देने के लिए रची गई मायावी बाधाओं की यंत्रणा (तिलिस्म) है ।’, संगणकीय खेल, माया में विद्यमान माया हैं । (Computer Games are Illusion in Illusion.) इससे ईश्वर ही भावी पीढी की रक्षा करके उन्हें साधना की ओर मोडें, यही प्रार्थना है !’