गणतंत्रदिवस अर्थात राष्ट्रीय कर्तव्यों का बोध करनेवाला राष्ट्रीय उत्सव ! भारतीय राज्यों में घटना द्वारा नागरिकों को जन्म से ही मूलभूत अधिकार प्रदान किए गए हैं । इन अधिकारों की रक्षाकरने का दायित्व राज्य सरकार का है । मूलभूत अधिकारों में भाषण, संचार, शिक्षा, प्रचार एवं स्वतंत्रता आदि अधिकार आते हैं। यदि राज्य सरकार इन अधिकारों की रक्षा करने में असमर्थ है एवं उनका उल्लंघन हुआ हो, तो हम न्यायपालिका से न्याय प्राप्त कर सकते हैं ।
‘मूलभूत अधिकारों का’ भारतीय संविधान में समावेश करने के लिए, राज्य में घटना की उत्पत्ति करनेवाली समितिद्वारा तत्कालीन अनेक लोकतांत्रिक राष्ट्रों के संविधानों का अध्ययन किया गया । जैसे, अमेरिका, ब्रिटेन आदि । तदुपरांत संविधान के परिशिष्ट १४-१५-१९-२०-२१ में मूलभूत अधिकारों का समावेश किया गया एवं उनकी रक्षा का दायित्व न्यायालय के हाथो में सौंप दिया।
सर्वोच्च न्यायालय के ९ न्यायामूर्तियों द्वारा संविधान के ९वें अधिनियम में सुधार किया गया । राज्य सरकारद्वारा गठित अधिनियमों से नागरिकों के मूलभूत अधिकारों पर आंच न आए इसलिए संविधान के ९ वें परिशिष्ट में ऐसे विशिष्ट अधिनियमों का सहभाग किया जा सकता है’ ऐसा महत्त्वपूर्ण निर्णय न्यायामूर्तियों द्वारा दिया गया । इसके साथ ऐसा भी बताया गया, कि यदि राज्य सरकारद्वारा अधिकारों का पतन हो रहा हो, तो न्यायालय ९ वें परिशिष्ट में लिखित अधिनियम को नष्ट भी कर सकता है ।
१९७५ को देश में आपात स्थिति उत्पन्न हुई । तब यही प्रश्न उपस्थित हुआ था । तत्कालीन सरकारद्वारा आपात स्थिति की घोषणा करने से मूलभूत अधिकारों पर आंच आई थी । देश की आंतरिक सुरक्षा का कारण बताकर लक्षावधि लोगों को अपने नियंत्रण में लिया गया था ।
उस समय इस अधिनियम के अंतर्गंत नियंत्रण में लिए गए लोगों द्वारा सर्वोच्च न्यायालय में आवाहन याचिका प्रविष्ट की गयी थी; अपितु सर्वोच्च न्यायालय ने यह राजकीय विवाद, विधि से संबंधित नहीं है, यह बताकर इस प्रकरण में हस्तक्षेप करना उचित न समझा । संभवतः केंद्र सरकार के प्रति निष्ठा अथवा भय, ये कारण हो सकते हैं ।
विशिष्ट अधिकार देने में अडचन उत्पन्न होगी इसलिए घटनाकारों द्वारा अधिकार प्रदान करने का स्वाधिकार प्रशासन को दिया गया था । स्वतंत्रता के उपरांत राष्ट्र का शासन तंत्र बलशाली नहीं था । इसलिए वे इस अधिकार का अधिक बलपूर्वक उपयोग नहीं कर पाए । इसलिए घटनाकारों ने कुछ महत्वपूर्ण अधिकारों को मार्गदर्शक सूत्र बताकर प्रशासन को इस आधिकार का अनुशासन करने के लिए कहा था । स्वतंत्रता के उपरांत आगामी १०-१५ वर्षों में इन अधिकारों को नागरिकों को उपलब्ध कराने के लिए बताया गया था ।
मार्गदर्शक सूत्रो में बताए गए अधिकार कल्याणकारी थे । वे लोकतांत्रिक राष्ट्र में नागरिकों के मूलभूत अधिकारों के समान थे । केवल सरकार को ही इन अधिकारों का अनुशासन करने का बंधन था । सरकार इन मार्गदर्शक तत्त्वों का शीघ्रातिशीघ्र अवलंब करेगी ।
मूलभूत अधिकारों की सुरक्षा करने का दायित्व राज्य सरकार का होता है; परंतु सर्वोच्च न्यायालय एवं मानव अधिकार आयोग बलशाली माने जाते हैं । अनेक बार इन संस्थाओं द्वारा मानवीय मूलभूत अधिकारों के संबंध में कुछ महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक निर्णय लिए गए हैं । सामान्य नागरिकों की यह धारणा है कि ये संस्थाएं ऊच्चस्तरीय लोगों को विशेष महत्त्व देती हैं; किंतु यह राज्य घटनाद्वारा लिखित मूलभूत अधिकारों के विरोध में है ।
नागरिकों की आधारभूत आवश्यक्ताएं अर्थात शिक्षा, पानी, स्वास्थ्य, स्वच्छता, प्रदूषण मुक्त मानवाधिकार आदि मूलभूत आवश्यकताएं हैं; जिनको स्वतंत्रता के उपरांत अर्थात २६ जनवरी १९५० के अधिनियमों के गठन के उपरांत आगामी १५-२० वर्षों में मूलभूत अधिकारों का स्तर दिया जाएगा, ऐसा बताया गया था; परंतु इसके लिए प्रयास करना छोड, इन्हें उपलब्ध कराने के लिए भी सरकारद्वारा विशेष कृत्य नहीं हो पाया है !