अक्कलकोट के श्री स्वामी समर्थ ! (प्रकटकाल : इ.स. १८५६-१८७८)
माघ वद्य १, शके १३८०, इ.स. १४५८ में नृसिंह सरस्वती श्री शैल्य यात्रा के कारण कर्दली वन में अदृश्य हुए । इसी वन में वे तीनसौ वर्ष प्रगाढ समाधि अवस्था में थे । तभी उनके दिव्य शरीर के चारों ओर चींटियों ने भयंकर बांबी निर्माण किया । उस जंगल में एक दिन एक लकडहारे की कुल्हाडी गलती से बांबी पर गिरी तथा श्री स्वामी बांबी से बाहर आए । प्रथम वे काशी में प्रकट हुए । आगे कोलकाता जाकर उन्होंने कालीमाता का दर्शन किया । इसके पश्चात गंगातट से अनेक स्थानों का भ्रमण करके वे गोदावरी तटपर आए । वहां से हैदराबाद होते हुए बारह वर्षोंतक वे मंगलवेढा रहे । तदुपरांत पंढरपुर, मोहोळ, सोलापुर मार्ग से अक्कलकोट आए । वहांपर उनका निवास अंततक अर्थात शके १८०० तक था ।
दत्त संप्रदाय में श्रीपाद श्रीवल्लभ तथा नृसिंह सरस्वती दत्तात्रेय के पहले तथा दूसरे अवतार माने जाते हैं । श्री स्वामी समर्थ ही नृसिंह सरस्वती हैं अर्थात दत्तावतार हैं ।
अक्कलकोट के परब्रह्म श्री स्वामी समर्थ अपने भक्तों को सुरक्षा का वचन देते हुए कहते थे, ‘डरो नहीं, मैं तुम्हारे साथ हूं ।’ भक्तों को आज भी इसकी अनुभुती आती है । श्री स्वामी समर्थ अक्कलकोट प्रथम खंडोबा के मंदिर में इ.स. १८५६ में प्रकट हुए । उन्होंने अनेक चमत्कार किए । जनजागृति का कार्य किया । ‘जो मेरा अनन्य भावसे चिंतन, मनन करेगा, उस अनन्य भाव के चिंतन की उपासना, सेवा मुझे सारसर्वस्व समझ के अर्पण करेगा उन नित्य उपासना करनेवाले मेरे प्रिय भक्तों का मैं सब प्रकार से योगक्षेम चलाउंगा,’ उन्होंने भक्तों को ऐसा आश्वासन दिया ।
स्वामी समर्थ क्षण में अदृश्य होते थे तथा अचानक प्रकट भी होते थे । स्वामी गिरनार पर्वतपर अदृश्य हुए तथा दूसरे ही क्षण आंबेजोगाई में प्रकट हुए । हरिद्वार से काठेवाड के जीविक क्षेत्र स्थित नारायण सरोवर के बीचोबीच सहजासन में बैठे दिखाई दिए । तदुपरांत भक्तों ने उन्हें पंढरपुर की भीमा नदी की बाढ में चलते हुए देखा ।
स्वामीजी ने मंगळवेढा स्थित बसप्पा का दारिद्र्यनष्ट किया । उसके लिए सर्पों को सुवर्ण में बदल दिया । उस गांव के बाबाजी भट नाम के ब्राह्मण गृहस्थ का सूखा कुआं पानी से भर दिया । पंडित नाम के अंधे ब्राह्मण के नेत्रों की ज्योति वापस लाई । स्वामी समर्थ ने ये सारे चमत्कार लोगों में भक्तिमार्ग की जागृति लाने हेतु दिखाए । संत लोगों के कल्याण हेतु, लोगों के भाव हेतु तथा लोगों के आत्मिक एवं पारमार्थिक ऐश्वर्य हेतु तथा दूसरों के सुख में सुख माननेवाले होते हैं ।
स्वामी समर्थ ने समाज की दुष्ट प्रवृत्ति नष्ट कर सत् विचारों की पुनस्र्थापना की । दुखी एवं पीडित लोगों पर कृपा की वर्षा की । इच्छुक भक्त सदा स्मरण करें ऐसा अनुभव देकर उन्हें प्रेमबंधन से अपना लिया । स्वामी समर्थ की दृष्टि में धनवान तथा निर्धन सब एक जैसे ही थे । उन्हें सीधा-साधा भोला भक्तिभाव बहुत अच्छा लगता था । उनके ह्रदय में सामान्य लोगों के लिए बहुत प्रेम था । स्वामी समर्थ बहुत तेजस्वी थे । उनके मुखमंडल पर कोटि सूर्यों का तेज शोभायमान होता था । उनके नेत्रों में अपरंपार करुणा थी । भक्तों पर आए संकट वे दूर करते थे ।
एक बार स्वामी समर्थ के दर्शन हेतु अक्कलकोट के महाराज मालोजीराजे हाथी पर बैठकर आए थे । उन्होंने जब स्वामी समर्थ के चरणोंपर मस्तक रखा, तो स्वामीजी ने मालोजीराजे के गाल पर एक तमाचा जड दिया तथा कहा, ‘तुम्हारा बडप्पन तुम्हारे घर में । उसका यहां क्या काम ? हम ऐसे बहुत से राजा बनाते हैं ।’ तबसे मालोजीराजे स्वामी समर्थ के दर्शन हेतु पैदल ही आते थे ।
अक्कलकोट संस्थान के मानकरी सरदार तात्या भोसलेजी का मन संस्थान से, संसार से ऊब गया, तब वे स्वामी समर्थ के चरणों में रहकर भक्तिभाव से उनकी सेवा करने लगे । एक बार वे स्वामी समर्थ के निकट बैठे थे तब स्वमीजी ने तात्या भोसलेजी से कहा, ‘तुम्हारे नामकी चिट्ठी आई है ।’ तात्या भोसलेजी ने स्वामी समर्थ से प्रार्थना की, ‘मुझे आपकी और सेवा करनी है !’ तात्या भोसलेजी ने यमदूत को देखा, तथा वे डर गए । अपने भक्त की तडप देखकर स्वामी समर्थ ने यमदूत से कहा, ‘यह मेरा भक्त है । इसे स्पर्श मत करना । उस आेर बैठे बैल को ले जाओ !’ उस बैल के प्राण गए तथा वह भूमिपर गिर गया ।
श्री स्वामी समर्थ भक्तकाम कल्पद्रुम हैं, भक्तकाम कामधेनु हैं, चिंतामणि हैं । उनके हृदय में करुणा का सागर है । उन्हें आवाज दो, वे सदा तुम्हारे पास हैं । स्वामी समर्थ अपने भक्तों के कल्याण हेतु सदैव जागृत रहकर भयंकर संकटों से उन्हें मुक्त कराते हैं ।
अक्कलकोट में मोरोबा कुलकर्णी नाम का एक स्वामीभक्त था । उसके आंगन में श्री स्वामी समर्थ अपने सेवकों समेत सोए थे । मोरोबा की पत्नी को रात के समय पेट में पीडा आरंभ हुई । उसे असह्य यातनाएं होने लगीं । वह कुएं में जान देने निकली । स्वामी समर्थ एकदम जग गए तथा सेवकों से कहा, ‘अरे, कुएं में कौन जान दे रहा है देखो । उसे मेरे पास ले आओ !’ सेवक कुएं के पास गए तो मोरोबा की पत्नी कुएं में कूदने की स्थिति में दिखी । वे उसे लेकर स्वामी समर्थ के समक्ष आए । स्वामीजी ने उसकी ओर कृपादृष्टि से देखा । उसके पेट की पीडा समाप्त हो गई ।
स्वामी समर्थद्वारा अपने रूप में तथा भक्त को उसके इच्छित देवता के रूप में दर्शन देने की जानकारी अनेक कथाओं द्वारा ज्ञात होती है । द्वारकापुरी में सूरदास नाम के महान कृष्णभक्त रहते थे । सूरदास जन्मांध थे । सगुण साकार श्रीकृष्ण का दर्शन हो, यह उनकी बडी इच्छा थी । स्वामी समर्थ सूरदास के आश्रम में जाकर खडे हो गए तथा सूरदास को आवाज दी । कहा, ‘तुम जिसके नाम से आवाज दे रहे हो, देखो वह मैं तुम्हारे दरवाजे पर खडा हूं । सूरदास, जरा देखो ।’ इतना कहकर समर्थ ने उनके दोनों नेत्रों को हस्तस्पर्श किया । तभी सूरदास को दिव्य दृष्टि प्राप्त हुई तथा उन्हें शंख, चक्र, गदाधारी श्रीकृष्ण का सगुण रूप दिखने लगा । सूरदास गदगद हो गए । थोडी देर के पश्चात चेतना वापस आनेपर स्वामी समर्थ ने उन्हें अपने वास्तविक रूप का दर्शन कराया । सूरदास भावविभोर हो गए तथा स्वामी समर्थ से कहा, ‘आपने मुझे दिव्यदृष्टि दी है । अब इस जन्ममृत्यु के चक्र से मुझे मुक्त कीजिए !’ स्वामी समर्थ ने सूरदास को, ‘तुम ब्रह्मज्ञानी बनोगे !’ यह आशीर्वाद दिया ।
जगह-जगहपर स्वामी समर्थ के अगणित भक्त हैं । १८७८ में स्वामी समर्थ ने अक्कलकोट में अपने पार्थिव शरीर का भले ही त्याग किया हो, किंतु ‘मै गया नहीं हू, हमेशा आपके साथ हूं,’’ उनका यह वचन भक्तों का आधार है ।