महाराष्ट्र राज्य में समर्थ रामदास स्वामी नामक सुप्रसिद्ध संत थे । उनके पास आंतरिक एवं बाह्य दोनो प्रकार के सामर्थ्य थे । इसके विपरीत संत तुकाराम महाराज सामान्य रहन-सहन एवं शांत स्वभाव के संत थे । वे अत्यंत संयमी तथा तपस्वी जीवन व्यतीत करते थे । आइए, उनके एक शिष्य के अपने अविचार से किए कृत्य एवं संत तुकाराम महाराज की क्षमाशीलता को जान लें ।
संत तुकारामजी की भजन मंडली के एक शिष्य को भ्रम हुआ, समर्थ रामदास स्वामीजी के मठ में निवास करनेवाले भक्त सुखी हैं । वे अच्छे वस्त्र पहनते हैं तथा हलुवा-पूडी खाते हैं ! समर्थ रामदासजी छत्रपति शिवाजी राजा के गुरु होने से ही उनके पास ढेर सारा धन एवं वैभव है । उनके शिष्यों को समाज में अधिक सम्मान मिलता है । परंतु हमारे गुरु तुकाराम महाराज के पास तो कुछ भीनहीं । न हलुवा-पूडी, न तकिया-मसनद हैं !
तुकाराम महाराजजी के पास कुछ भी सुविधा नहीं ऐसा प्रलाप कर वह शिष्य समर्थ रामदास स्वामी की मंडली की ओर आकर्षित हुआ एवं उनके पास चला गया । समर्थ को प्रणाम कर बोला, ‘‘महाराज, शिष्य के रूप में मुझे स्वीकार करें । मैं आपके मठ में रहूंगा एवं भजन-कीर्तन सेवा करुंगा ।’’
समर्थ : इसके पूर्व आप किसके शिष्य थे ?
शिष्य : संत तुकाराम महाराजजी के !
(समर्थजी ने विचार किया, जिनका सत्यपर प्रेम होता है, ऐसी विभूति संत तुकाराम जैसे गुरु का त्याग ! आत्मसाक्षात्कारी पुरुष जहां रहते हैं, वहां वैकुंठ होता है ! ऐसे महापुरुष का त्याग करने का विचार इसके मन में कहांसे आया ?)
समर्थ : संत तुकाराम महाराजजी का शिष्य होते हुए हम आपको मंत्र कैसे दें ? यदि हमसे मंत्र ग्रहण करना हो, यदि हमारे शिष्य बनना चाहते हो तो, तुकारामजी की दी हुई कंठमाला उन्हें वापस कर दो तथा उनका दिया हुआ मंत्र भी वापस दे आओ । पहले गुरु का त्याग करनेपर ही हम तुम्हारे गुरु होंगे ।
(उस शिष्य को सत्य का ज्ञान हो, इसके लिए ही समर्थ रामदास स्वामी ने उसे ऐसा कृत्य करने के लिए कहा । वह तो प्रसन्न हो गया । उसे लगा, मैं अभी जाकर तुकाराम महाराजजी का त्याग कर वापस आता हूं । उनकी दी माला तथा मंत्र उन्हें वापस कर आता हूं ।)
तुकाराम महाराजजी के पास जाकर शिष्य ने कहा : महाराज, अब हमें आपका शिष्यत्त्व नहीं चाहिए ।
तुकाराम महाराज : मैंने आपको अपने शिष्य के रूप में स्वीकार नहीं किया था । अरे, आप तो स्वयं चले आए थे । क्या मैंने आपको पत्र लिखकर बुलवाया था ? क्या मैंने आपको बलपूर्वक माला परिधान करने के लिए दी थी ? माला तो आपने स्वयं अपने ही हाथों से परिधान की थी । मेरे गुरु ने जो मुझे मंत्र दिया था, वहीं मैंने आपको बता दिया । इसमें मेरा कुछ भी नहीं !
शिष्य : महाराज ! हमें आपकी माला नहीं चाहिए ।
तुकाराम महाराज : यदि नहीं चाहिए तो तोड डालो !
शिष्य (तुरंत माला तोडते हुए) : महाराज ! अब आपका दिया हुआ मंत्र भी वापस ले लें ।
तुकाराम महाराज : मंत्र मेरा नहीं, मेरे गुरुदेव का है । बाबाजी चैतन्यजी का प्रसाद है । मेरा अपना कुछ भी नहीं !
शिष्य : हमें आपका मंत्र नहीं चाहिए । हम तो दूसरे गुरु करना चाहते हैं ।
तुकाराम महाराज : मंत्र का उच्चारण कर पत्थरपर थूक दो । इससे मंत्र का त्याग होगा ।
(उस अभागे मनुष्य ने गुरुमंत्र त्याग ने के लिए मंत्र का उच्चारण कर पत्थरपर थूका ! उसने देखा कि उस पत्थरपर वह मंत्र लिखा गया । उस शिष्य को सुबुदि्ध प्रदान करने के लिए संत तुकारामजी के संकल्प ने काम किया; इसलिए उस पत्थरपर वह मंत्र प्रकट हुआ ।)
शिष्य (समर्थ रामदास स्वामी के पास जाकर) : महाराज, हम मंत्र का त्याग कर आए हैं तथा हमने माला भी तोड दी । अब हमें आपका शिष्य बनाए ।
समर्थ : आपकेद्वारा मंत्र का त्याग करनेपर उस समय क्या हुआ था ?
शिष्य : मंत्र पत्थरपर प्रकट हुआ था ।
समर्थ : ऐसे महान गुरुदेव ! जिनका दिया हुआ मंत्र पत्थरपर प्रकट हुआ ! पत्थरपर भी मंत्रका प्रभाव पडा । परंतु हे मूर्ख ! यदि आपपर कुछ भी परिणाम नहीं हो सका तो हमारे दिए मंत्र का आपपर क्या प्रभाव पडेगा ? आप तो पत्थर से भी गए बीते हो ! यहां क्या करेंगे ? क्या हलुवा-पूडी खाने के लिए साधु बने थे ?
शिष्य : हमने अपने गुरु का त्याग किया और आप हमारा दायित्व लेना अस्वीकार कर रहे हैं ?
समर्थ : आपके जैसे लोग बिना किसी सहारे के ही रहेंगे । आपके लक्षण ही वैसे हैं । क्या आपके जैसे गुरुद्रोही को मैं अपना शिष्य स्वीकार करुंगा ? क्या हमें अपराधी बनना है ?
शिष्य : महाराज, कृपा कर मुझे स्वीकार करें ।
समर्थ : नहीं ! यह असंभव है ।
वह शिष्य खूब रोया । उसने अनेक बार हाथ जोडे ।
समर्थ (करुणा से) : संत तुकाराम महाराज उदार विभूति हैं । उनके पास जाकर हमारी ओर से प्रार्थना करो कि समर्थ ने प्रणाम किया है । । उनसे कहो, ‘मुझे क्षमा करें ।’
वह तुकाराम महाराजजी के पास जाकर उनसे याचना करने लगा । तुकारामजी ने विचार किया, यदि समर्थजी ने भेजा है तो, मैं क्यों अस्वीकार करूं ?
तुकाराम महाराज : अरे ! पहले तुम स्वयं आए थे । तुमने ही माला मांगी थी; मैंने दी । ठीक है ! इसके उपरांत तुमने ही माला तोड दी । अब पुनश्च तुम स्वयं आए हो तो पुनश्च दे देता हूं । यदि समर्थ ने भेजा है, तो मुझे आपत्ति नहीं । समर्थ रामदास स्वामी की जयजयकार हो !
संदर्भ : ऋषिप्रसाद, जुलाई २००२