चौकस बुद्धि व निश्चयी व्यक्तित्ववाले लोकमान्य तिलक का जन्म २३ जुलाई सन् १८५६ में रत्नागिरी, महाराष्ट्र में हुआ । राष्ट्रकार्य के लिए जनचेतना आवश्यक है, इस विचार से उन्होंने न्यू इंग्लिश स्कूल जैसे विद्यालय आरंभ किए, केसरी व मराठा जैसी हिंदुत्ववादी पत्रिकाएं प्रकाशित की । हिंदुओं को संगठित कर, उनकी प्रतिकार शक्ति बढ़ाने व राजकीय मतों का प्रसार करने हेतु लोकमान्य तिलकने राष्ट्रकार्य के लिए लोकजागृति के साधन उपलब्ध करवाए । उनकी लडाई के चतुःसूत्र थे – स्वराज्य, स्वदेशी, बहिष्कार तथा स्वावलंबन । उनकी ‘लोकमान्यता’ ही उनकी जीवननिष्ठा व तपस्या का फल था ।
हिंदुओं को आत्मरक्षा के लिए संगठित होना चाहिए !
उस समय भी छोटी-बडी बातों को लेकर हिंदू-मुसलमानों में दंगे होते थे । हिंदुओं के सार्वजनिक रूप से उपयोग में लाए जानेवाले रास्तों को लेकर विरोध करना, जुलूसों में बजाए जानेवाले वाद्योंपर आक्षेप उठाना इत्यादि क्षुद्र कारणों से मुसलमान हिंदुओं से मारपीट करते थे । संख्याबल व संगठन के अभाव में हिंदू मार खाते थे व जहांपर हिंदू प्रतिकार करते थे, वहांपर अंग्रे़ज सरकार मुसलमानों का साथ देती थी । हिंदुओं से पुलिस मारपीट करती थी व उनके नेताओंपर मुकदमे चलाती थी । हिंदुओं को पक्षपाती पुलिस से आधार नहीं मिला । इसलिए सन् १८९० में लोकमान्य तिलकने मुंबई में हुए दंगों के समय आवाहन किया, कि हिंदुओं को ही आत्मरक्षण के लिए संगठित होकर अपने अधिकारों की रक्षा करनी चाहिए । केसरी के एक अग्रलेख में उन्होंने हिंदुओं को सावधान करने के लिए लिखा था, ‘मुसलमान निरंकुश हो गए हैं । हिंदू सहनशीलता के नामपर अभिमान शून्यता को ढकने की मूर्खता न करें ।’ आत्मरक्षा के लिए शस्त्रसज्ज रहना व शस्त्र चलाने का प्रशिक्षण लेने की आवश्यकता को समझते हुए उन्होंने अगले कदम भी उठाए थे ।
आज के अपूर्ण विश्व में कृष्णनीति का अवलंबन आवश्यक !
वे कहते थे, जिस प्रकार ईश्वरप्राप्ति के अनेक मार्ग हैं, उसी प्रकार ईश्वरार्पण बुद्धिद्वारा जनसंग्रह करने में साधनाओं की भिन्नता है । गांधीजी के अत्यंत अहिंसावादी प्रयत्न अर्थात् भगवान बुद्ध का मार्ग – ‘अक्रोधेन जयेत् क्रोधम्’ (क्रोध न करके क्रोधपर विजय प्राप्त करो ) तथा कृष्णनीति अर्थात् ‘ये यथा माम् प्रपद्यंते’ (जो जैसा है उसे वैसा ही प्रत्युत्तर दो) । उनकी विचारधारा थी कि, ये दोनों मार्ग भले ही अपने स्थानपर सही हों, फिर भी आज के अपूर्ण विश्व के लिए दूसरा मार्ग, अर्थात श्रीकृष्ण का ही मार्ग अधिक योग्य है ।
राष्ट्रसेवा में जीवन अर्पण करना भी मोक्ष मार्ग है !
स्वतंत्रता का रक्षण कैसे करना है, इसका मार्गदर्शन तिलक के तत्त्वज्ञान द्वारा प्राप्त होता है । इस कारण वह सार्वकालिक है, ऐसा मत तिलक के अभ्यासियों द्वारा व्यक्त किया जाता है । गीतारहस्य में उन्होंने धर्म-अधर्म, नीति-अनीति, कार्य-अकार्य इत्यादि का निष्कर्ष सरल भाषा में बताने का प्रयत्न कर पाश्चात्यों की इस गलत धारणा को दूर किया कि, ‘हमारे पास नीतिशास्त्र नहीं है’।
कानून अन्याय करे, तो निःसंकोच उसे तोडो !
सरकार यदि बलिष्ठ है, तो वह तुम्हारी ही सहायता से बलवान बनी है । तुम्हारा आपसी मतभेद ही सरकार का कवच है । तुम्हारी दुर्बलता ही उनका बल है । तुम्हारा अज्ञान ही उनका सामर्थ्य है । ‘कोई कानून यदि अन्याय करता है, तो उसे बिना किसी संकोच के तोडो’, जनता से ऐसा कहते हुए वे लिखते हैं, कि कानून कितना भी कठोर क्यों न हो, फिर भी यदि वह अन्याय करता है, तो उसका प्रतिकार करना ही चाहिए । कानून तोडनेपर दंड तो मिलेगा ही, परंतु उसे सहन कर जुल्म का प्रतिकार करना चाहिए ।
जुलाई सन् १९२० में उनका स्वास्थ्य बिगडने लगा व १ अगस्त के दिन प्रथम प्रहर में उनका जीवनदीप बुझ गया । तिलक का जीवन दिव्य था । लोगों के सम्मान व श्रद्धा के वे प्रत्येक दृष्टि से पात्र थे । तन, मन व धन, सर्व अर्पण कर उन्होंने देशसेवा की । अपनी प्रत्येक कृतिद्वारा जीवन की अंतिम सांसतक वे देश के लिए लडते रहे । ऐसे शूर व निर्भय नेता को हमारा विनम्र नमन है !