‘मराठाकेसरी’ लोकमान्य तिलक !

लोकमान्य तिलक

लोकमान्य तिलक

अंग्रेजों की सत्ता होते हुए भी भारतभूमि के उद्धार के लिए दिन-रात चिंता करनेवाले और अपने तन, मन, धन एवं प्राण राष्ट्रहित में अर्पण करनेवाले कुछ नररत्न इस देश में अमर हो गए । उन्हींमें से एक रत्न अर्थात् लोकमान्य तिलक । तत्त्वचिंतक, गणितज्ञ, धर्मप्रवर्तक, विधितज्ञ आदि विविध कारणों से उनका नाम संपूर्ण विश्व में प्रसिद्ध हैं । ‘लोकमान्य’ यह उपाधि प्राप्त ध्येयवादी एवं दीर्घ उद्योगी व्यक्तिमत्त्वका १ ऑगस्ट को स्मृतिदिन रहता हैं । स्वतंत्रतापूर्व काल में लोकमान्यजी के निश्चयी तथा जाज्वल्य नेतृत्व गुणों से ओतप्रोत उनकी पत्रकारिता वैचारिक आंदोलन के लिए कारणीभूत हुई । स्वतंत्रता के पश्चात् इस देश की दुरावस्था रोकने हेतु आज एक और ऐसे ही वैचारिक आंदोलन की आवश्यकता है । आज के व्यावसायिक पत्रकारिता का भान जनता को कराने हेतु, यह लेख प्रस्तुत है ।

लोकमान्यजी का शिक्षण

         लोकमान्य तिलकजी का जन्म रत्नागिरी में हुआ । वर्ष १८७३ को उन्होंने प्रवेशपरीक्षा (मैट्रिक) उत्तीर्ण कर डेक्कन महाविद्यालय में प्रवेश लिया एवं वर्ष १८७६ को गणित विषय से बी.ए. प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण हुए । विद्यार्थी अवस्था में वह कुशाग्र बुद्धि के विद्यार्थी के रूप में प्रसिद्ध थे । बी.ए. होने के पश्चात्  लोकमान्य तिलकजी ने विधि(कानून)का अध्ययन किया एवं वर्ष १८७९ को वे एल्.एल्.बी.की परीक्षा उत्तीर्ण हुए ।

लोकमान्य तिलकजी की पत्रकारिता का उद्देश

         अपनी मातृभूमी के उद्धार के लिए शैक्षणिक कार्य को ही प्रथम प्राधान्य देना अनिवार्य है, ऐसे विचार  लोकमान्य तिलक एवं आगरकर इन दोनों मित्रों के मन में उत्कटता से आने लगे । विष्णुशास्त्री चिपलूणकजी के नेतृत्व में इन प्रयासों का आरंभ हुआ और १ जनवरी १८८० को पुणे में ‘न्यू इंग्लिश स्कूल’की स्थापना हुई । देशसेवा के जो अनेक कार्यक्रम उन्होंने अपने मन में सोचे थे, उनमें पाठशालाएं खोलकर शैक्षणिक कार्य को प्रोत्साहन करने की उनकी धारणा व्यापक तथा उदात्त थी । समाज को जागृत करना, नए युग के प्रकाशकिरणों से जनता का जीवन तेजोमय करना और समाज मन में नयी आकांक्षाएं निर्माण कर उन्हें कार्यान्वित करना जिससे एक स्वाभिमानी तथा बलशाली समाज बने, इसी उद्देश्य से उनका विचारमंथन होने लगा । इसी के परिणामस्वरूप उन्होंने मराठी भाषा में ‘केसरी’ एवं अंग्रेजी भाषा में ‘मराठा’ यह दो समाचार पत्रिका निकालने का निर्णय लिया ।

तिलकजी की पत्रकारिता के गुणधर्म

         केसरी का स्वरूप कैसे होगा, यह स्पष्ट करते हुए  लोकमान्य तिलकजी ने लिखा था – ‘‘केसरी निर्भयता एवं निःपक्षता से सर्व प्रश्नों की चर्चा करेगा । ब्रिटिश शासन की चापलूसी (खुशामत) करने की जो बढती प्रवृत्ती आज दिखाई देती है, वह राष्ट्रहित में नहीं हैं । ‘केसरी’ के लेख केसरी (सिंह) इस नाम को सार्थ करनेवाले होंगे ।’

निर्भीक पत्रकारिता का उपहार में मिलीं – यातनाएं

         कोल्हापुर संस्थान के राजप्रबंधक बर्वे के माध्यम से ब्रिटिश शासन छत्रपति शाहू महाराज का छल कर रहा है । यह जानकारी उन्हें मिलते ही केसरी में आरोप करनेवाला लेख प्रसिद्ध हुआ कि श्री. बर्वे कोल्हापुर के महाराज के विरुद्ध षडयंत्र रच रहे हैं । बर्वे ने उस लेख के विरोध में केसरीपर अभियोग चलाया । उसमें  लोकमान्य तिलक एवं आगरकरजी को चार मास का कारावास हुआ । इस प्रथम कारावास से उन्हें राजकीय कार्य की आवश्यकता तीव्रता से लगने लगी । कारावास से मुक्त होते हुए, उन्होंने एक अलग ही निर्धार किया और अपना राजनैतिक कार्यक्षेत्र निश्चित्त किया । ‘केसरी’ एवं ‘मराठा’ इन वृत्तपत्रों के संपादक के नाते कार्यारंभ किया ।

मृत्यु के पश्चात् आनेवाले मंगलवार को भी ‘केसरी’ डाक में जाना चाहिए !

          वर्ष १९०२ के वर्षाऋतु में पुणे में पुनः ग्रंथिज्वर का (प्लेग का) रोग फैला था । अनेक लोग भयवश स्थानांतरित हो गए । ‘केसरी’ जहां छपता था, एक दिन उस आर्यभूषण मुद्रणालय के स्वामीने तिलकजी को अपनी अडचन बताई, ‘‘मुद्रणालय में कीलें जोडनेवाले कर्मचारियों की अनुपस्थिति बढ रही है; जिससे यह पैâलाव न्यून होने तक ‘केसरी’की प्रति समयपर निकलेगी कि नहीं, कह नहीं सकते ।”

            लोकमान्य तिलक कडे स्वर में बोले, ‘‘आप आर्यभूषण के स्वामी और मैं केसरी का संपादक, यदि इस महामारी में हम दोनों को ही मृत्यु आ गई, तब भी अपनी मृत्यु के पश्चात् पहले १३ दिनों में भी ‘केसरी’ मंगलवार की डाक से जाना चाहिए ।’’

          उन दिनों उनके घुटनों में वेदना थी । उन्हें चलने में बहुत कष्ट होता था । फिर भी वे उसी स्थिति में चलते हुए नगर में गए तथा ४-५ मुद्रणालय के स्वामी से मिलकर कर्मचारियों का प्रबंध कर आए । आर्यभूषण के स्वामी व्याधिग्रस्त  लोकमान्य तिलकजी की ओर आश्चर्य से देखते ही रहे !

आदर्श संपादक !

          इस महामारी में उनके ज्येष्ठ सुपुत्र विश्वनाथपंत का निधन हो गया । उनके दामाद श्री. केतकरजी उन्हें सांत्वना देने लगे तो वे बोले, ‘‘जब गांव की होली जलती है, तब प्रत्येक घर से गोबर के कंडे जाने चाहिए । यह भी उसी प्रकार हुआ है ।”

  रविवारके दिन विश्वनाथपंत का निधन हुआ । अगले दिन सोमवार अर्थात् ‘केसरी’का अग्रलेख लिखने का दिन था । सभी सोच रहे थे कि लोकमान्य तिलकजी आज किसी और को अग्रलेख लिखने के लिए कहेंगे ।

  लेखक आया और तिलकजी ‘श्रीमंत होलकर महाराज का त्यागपत्र स्वीकार किया’ यह अग्रलेख बताने लगे । उनका बताना अभी पूर्ण ही हुआ था कि इतने में उनके दूसरे सुपुत्र रामभाऊने वहां आकर बताया कि, ‘‘पिताजी, बापू (छोटे सुपुत्र श्रीधरपंत) को ज्वर चढा है ।” पंरतु उन्होंने अनसुना कर दिया ।

  तदुपरांत उन्होंने उस लेख का बारिकी से निरीक्षण किया, जो भी चुक-भूल ध्यान में आयी उसमें सुधार किया और लेख मुद्रणालय में भेज दिया फिर वे अपने पुत्र के पास गए ।

   लोकमान्य तिलकजी कहते थे, ‘‘मैं केसरी सप्ताह में एक बार लिखता हूं; परंतु उस एक दिन क्या लिखना है, इसके विचार पूरे सप्ताह मेरे मस्तिष्क में चलते हैं ।”

निर्भयता से प्रशासन के दोष दिखाना

         वर्ष १८९६-९७ को महाराष्ट्र में बडा अकाल पडा तथा लोगों को अन्न मिलना कठिन हो गया । उस समय उन्होंने केसरी में लेख लिखकर शासन को ‘फेमिन रिलीफ कोड’ नामक कानून से उनके कर्तव्य का स्पष्ट बोध कराया । इस लेख में  लोकमान्य तिलकजीने यह आवाहन किया कि, जो अधिकारी जनता के अधिकारों की अवहेलना करते हैं, उनको संकेत देकर जनताने भी अधिकारियों के विरुद्ध परिवाद करना चाहिए । तिलकजीने दिखाया कि कानूनके बंधनोंमें रहकर भी कितनी प्रभावशाली लोकसेवा कर सकते हैं ।

तर्कपुर्ण विचारप्रणाली की पत्रकारिता

          संसद सदस्य गोखलेजीने यह कहना आरंभ किया कि, कांग्रेस का आंदोलन वैधानिक मार्ग से होना चाहिए ; परंतु  लोकमान्य तिलकजीने उसका विरोध किया । उन्होंने केसरी में ‘वैधानिक अथवा अवैधानिक’ इस लेख में उनके विचारों का खंडन इस प्रकार किया – ‘‘ब्रिटनद्वारा हिंदुस्थान को अपने अधिकारों का ‘राजपत्र’ (सनद) ना देने के कारण हिंदुस्थान का आंदोलन वैधानिक होना चाहिए, ऐसा कहना ही हास्यास्पद है । ब्रिटिशों ने बनाए कानून के अनुसार हिंदुस्थान में उनका राज्यकार्य आरंभ है । प्रश्न केवल इतना ही है कि, यहां का आंदोलन वैधानिक है अथवा नहीं । कानून और नीति जब एक दूसरे के विरुद्ध होते हैं, तब कानून तोडकर भी नीतिका पालन करना चाहिए और कानून तोडने से होनेवाला दंड शांति से सहना चाहिए ।”

शासन की दमन नीति का भांडाफोड करनेवाली पत्रकारिता

          सशस्र आंदोलन का दमन करने हेतु शासन योग्य संधिकी प्रतीक्षा देख रहा था । अंत में मुजफ्फरपुर की घटना के कारण शासन को वह संधि मिल ही गयी । युवा क्रांतिवीर खुदीराम बोसद्वारा मुजफ्फरपुर में एक अंग्रेज अधिकारीपर का हुआ बम भूलसे दूसरी घोडागाडीपर पडने के कारण उस विस्फोट में दो अंग्रेज स्त्रियों की मृत्यु हो गयी । इस बमविस्फोट ने शासकीय वक्रदृष्टि में ‘अग्नि में मिट्टी के तेल का काम’ किया । इस समय  लोकमान्य तिलकजीने केसरी के अग्रलेखों में आतंकवादी मार्गसंबंधी अप्रसन्नता व्यक्त करते हुए युक्तिवाद किया कि शासनके दमननीति के कारण ही आतंकवादी प्रवृत्ति को बल मिलता है । इस विस्फोट प्रकरण के निमित्तमात्र से केसरी में अत्यंत उग्र ५ अग्रलेख प्रसिद्ध हुए और उन्हीं अग्रलेखों के कारण २४ जून १९०८ को उनपर राजद्रोह का आरोप लगाकर शासनने तिलक को बंदी बनाया ।

निर्भीक एवं आदर्श पत्रकारिता के अग्रदूत

        लोकमान्य तिलकजी का मानना था कि पत्रकारिता अर्थात् जनमत बनाने का अधिकार है । उन्होंने राजद्रोह के अभियोग में २१ घंटे १० मिनटतक प्रदीर्घ भाषण करके स्वयं की न्यायभूमिका न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत की ।  उन्होंने स्पष्ट किया कि ‘वृत्तपत्रों को जनमत बनाने का अधिकार है । राष्ट्र के राजकीय जीवन में जो नए प्रवाह, शक्तियां निर्माण हुई हैं, उनका यथार्थ स्वरूप शासन को तथा जनता को बताना, दिखाना और उचित तथा उपायात्मक सूचनाएं देना, यह भी वृत्तपत्रों का कर्तव्य है । अपनी यह न्यायभूमिका प्रस्तुत कर, मैंने कोई राजद्रोह नहीं किया ।’

तिलकजी की पत्रकारिता का आधार – ईश्वरनिष्ठा

         इस अभियोग के समय उच्च न्यायालय में किया गया भाषण केवल स्वयं को बचाने का बौद्धिक प्रयास  नहीं था; अपितु उस भाषण में तर्कशुद्ध भूमिका, कानूनी विद्या का व्यासंग, देशभक्तिकी लगन तथा प्रमाणिकता रखने हेतु जो मिले वह दंड भोगने की सिद्धता आदि ऐसे असामान्य गुण प्रकट हुए थे । यह भाषण जितने भी लोगोंने सुना, उतने लोगों को तिलक की उदात्तता का एक अपूर्व साक्षात्कार हुआ । इस समय  लोकमान्य तिलकजी की चित्तवृत्ति अत्युच्च स्तरपर स्थित थी । स्थितप्रज्ञ वृत्ति से वे स्वयं के भविष्य की ओर देख रहे थे । जिस समय ज्यूरीने उन्हें ‘दोषी’ ठहराया, उस समय न्यायाधीश दावरने उनको पूछा, ‘आपको कुछ कहना है ?’ तब वे खडे होकर बोले – ‘‘ज्यूरीने यदि मुझे दोषी माना है, तो कोई बात नहीं; परंतु मैं अपराधी नहीं हूं । इस नश्वर संसार का नियंत्रण करनेवाले न्यायालय से वरिष्ठ भी एक शक्ति है । कदाचित यही ईश्वर की इच्छा होगी कि, मुझे दंड मिले और मेरे दंड भुगतने से ही मेरे अंगिकृत कार्य को गति मिले ।’

लोकमान्य तिलकजीने केसरी में व्यक्त किए विचारोंद्वारा जनमत सजग हुआ !

          जनमत जागृत करना, यह लोकनेताओं का कार्य है; परंतु जागृत हुए जनमत यदि शासन पैरोंतले कुचल दे, तो उस सजगता का क्या लाभ ?

           सागरतट के पर्वतपर सागर की लहरे थपेडे खाकर जैसे परावृत्त होती हैं, उसी प्रकार हमारे जनमत की स्थिति हुई है । नाक दबाए बिना मुंह नहीं खुलता और शासन को धक्का देनेवाली कोई बात जब तक हमसे ना हो, तब तक शासन का अहंकार कभी भी नहीं उतरेगा । शासन जनमत को आज तिनके समझकर उपेक्षा कर रही है । इन्हीं तिनकों को एकत्रित कर डोरी बननी चाहिए । सहस्रो, लक्षावधी लोगों का समुदाय एक निश्चय से बंध जाना चाहिए । जनमत का बल निश्चयमें है, केवल समुच्चय में नहीं ।

संदर्भ : ‘केसरी’, १५ अगस्त १९०५

भारतीय मुद्रापर अंकित लोकमान्य तिलकजी की प्रतिमा ।

लोकमान्य तिलक
लोकमान्य तिलक

भारतीय डाकमुद्रांकपर अंकित लोकमान्य तिलकजी की प्रतिमा ।

लोकमान्य तिलक
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सार्वजनिक शिवजयंती उत्सव के सुपरिणाम !

            लोकमान्य तिलकजीने १८९५ को छत्रपति शिवाजी महाराज की जयंतीपर सार्वजनिक उत्सव आरंभ किया। यह उत्सव महाराष्ट्र और उर्वरित भारत में ही नहीं, अपितु अमरिका एवं जापान में भी मनाया जाने लगा । इससे ही  शिवचरित्र का संशोधन आरंभ हुआ और उस संबंध में साहित्य निर्मिती को भी स्फूर्ति मिली । हरि नारायण आपटे, द.ब. पारसनीस, वि. का. राजवाडे, वासुदेवशास्त्री खरे, रियासतकार गो.स. सरदेसाई आदि इतिहासकार एवं साहित्यिकोंने महाराज के पराक्रम का वर्णन किया । अनेक वक्ता अपने भाषण, व्याख्यान तथा प्रवचनोंद्वारा उनकी भाषा में अंग्रेज लेखकों ने महाराजपर किए निंदाजनक लेखन का उत्तर देने लगे, इतना ही नहीं अंग्रेजी, बंगाली, हिंदी आदि भाषाओं में महाराजपर इस कालावधि में पुस्तकें भी प्रकाशित हुई । इस उत्सव का और एक सुपरिणाम हुआ कि अनेक प्रदेशों के स्थानीय वीर पुरुषों के उत्सव भी आरंभ हुए । राजस्थान में महाराणा प्रताप, तो बंगाल में प्रतापादित्य का उत्सव आरंभ हो गया ।

धर्मनिष्ठ  लोकमान्य तिलक !

          हिंदुत्व, हिंदु धर्म अथवा हिंदुओं को जागृत करनेवाली संगठनोंपर विष उगलनेवाले आज के सत्तालोलुप संपादकों को राजसत्ता का डर और किसी पद के लोभ को कोई भी महत्त्व न देनेवाले तिलकजी जैसे श्रेष्ठ संपादक का आदर्श लेना चाहिए । उन्होंने अपनी पैतृक संपत्ति में से कुछ अंश देकर अपने कुलदेवता ‘लक्ष्मी-केशव’ मंदिर के जीर्णोद्धार में सहायता की थी और अंतमें अपने मृत्युपत्रद्वारा कोंकण की पैतृक संपत्ति अपने कुलदेवता के श्रीचरणों में अर्पण की ।

          अंग्रेजी शिक्षा और ईसाई धर्मप्रचारकों के आक्रमक प्रचार से मोहित होकर उस समय अनेक लोग हिंदु धर्म की अवहेलना करते थे; परंतु लोकमान्यजी हिंदु धर्म का महत्त्व जानते थे । उन्होंने धर्मसंबंधी अपने अभिप्राय अनेकबार व्यक्त भी किए हैं । स्वामी विवेकानंदजी के संबंधमें ८ जुलाई १९०२ के ‘केसरी’के मृत्युलेख में उन्होंने कहा था, ‘‘हमारे पास यदि कुछ महत्त्वपूर्ण धरोहर है, तो वह है, हमारा धर्म ! हमारा वैभव, हमारी स्वतंत्रता, सर्व नष्ट हो चुका है; परंतु हमारा धर्म आज भी हमारे पास शेष है और वह भी ऐसा-वैसा नहीं, इन कथित सुधारित राष्ट्रों की कसौटी में आज भी स्पष्टरूप से खरा-खरा उतरता है । यह सूर्यप्रकाश जीतना सत्य है जिसका अनुभव सभीने लिया है । इस  स्थिति में यदि हम इसे छोड देते हैं, तो सर्व विश्व में हमारी निंदा होगी !” इसी प्रकार से अपने विचार प्रकट करके उन्होंने अपना धर्माभिमान व्यक्त किया है । शिक्षा व्यवस्था में भी  लोकमान्य तिलकजीने धर्मशिक्षा को प्रोत्साहन किया है ।

लोकमान्य तिलकजी का जीवनविषयक तत्त्वज्ञान

           उनका जीवनविषयक तत्त्वज्ञान उनके राजकीय तत्त्वज्ञान जैसा ही था । निःशस्त्र आंदोलन के साथ ही सशस्त्र क्रांति भी उन्हें अभिप्रेत थी । आइए, अपनी प्रत्येक कृत्य से जीवन के अंतिम श्वासतक देश की रक्षा हेतु लडनेवाले इस ध्येयवादी नेता को, विनम्र अभिवादन करते हुए हम भी संगठित होकर यह शपथ उठाएं कि, स्वराज्य अर्थात् हिंदवी स्वराज्य ही हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है और वह हम प्राप्त कर ही रहेंगे !

सौजन्य : दैनिक सनातन प्रभात

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