विद्यार्थी जीवन से ही क्रांतिकारी विचार !
देशभक्त नारायण का जन्म २५ मई, १८८८ को हुआ । सावरकर प्रारंभ से ही सुखी संपन्न घराने के थे; परंतु एकपर एक आकस्मिक संकटों तथा आपत्तियों के कारण उनका बचपन अत्यंत कष्टों एवं विषम परिस्थितियों में बीता । माता-पिता का छत्र दुर्भाग्य से शीघ्र छिन जानेपर उनका पालन-पोषण उनके बडे भाई गणेशपंत तथा बाबाराव एवं उनकी पत्नी श्रीमती येसूवहिनीने किया ।
विख्यात लेखक तथा चरित्रकार द.न. गोखले `क्रांतिवीर बाबाराव सावरकर’ इस चरित्र ग्रंथ में लिखते हैं, अनाथ नवजात शिशु नारायणराव को माता की ममता एवं पिता का स्नेह देकर बाबाने उनका पालन-पोषण किया । अपने तात्या के समान यह बालक भी देशभक्त हो, इस हेतु वे नारायणराव का अध्ययन बहुत आशा से करवा रहे थे । उनकी यह आशा नारायणरावने अंगे्रजी की तीसरी कक्षा में जाते ही पूर्ण करना प्रारंभ कर दिया । बाबा-तात्या से जो स्फूर्ति मिली उसके बलपर उन्होंने `मित्रसमाज’ विद्यार्थी संगठन की का विस्तार किया तथा उन्होंने अपने सामर्थ से अपने बलपर इस क्रांति दल में कितने ही नवयुवक ला खडे कर दिए । अपने उत्साहपूर्ण भाषण से वे विद्यार्थी जीवन में ही नवयुवकों के प्रेम तथा वयोवृद्धों की प्रशंसा के पात्र बन गए ।
मैट्रिक के पश्चात १९०८ में वे उच्च शिक्षा के लिए बडोदा गए तथा उन्होंने वहां `अभिनव भारत’की शाखा स्थापित की । इस शाखाके लगभग दो सौ नवयुवकोंने शपथ ली । बडोदाका संगठनकार्य नारायणरावने `मित्रसमाज’की भांति चहूओर फैलाया । उस समय उन्होंने पढाई के साथ ही माणिकरावकी व्यायामशालामें कुश्ती, मल्लखंब, लाठी इत्यादि का उत्तम ढंग से प्रशिक्षण प्राप्त किया ।
नारायणराव जब छुट्टी में नाशिक आते, तब वहां के बच्चों से इस विद्या का आदान-प्रदान होता था । नाशिक के इस प्रशिक्षण में सैनिक संचालन, निशानेबाजी तथा दीवारपर चढने की कला सिखाई जाती थी । यहां `मित्रसमाज’ ही अन्यत्र उल्लेखित `मित्रमेला’ । मित्रमेला की साप्ताहिक सभाएं होती तथा उसमें देशविषयक अलग- अलग पुस्तकों की चर्चा की जाती थी । सभा में स्फूर्तिप्रद विचार रखे जाते थे ।
छह महीनों का दंड !
१८९९ से १९०८-९ तक नाशिक में क्रांतिकार्य चरम सीमापर था । इस क्रांतिकार्य के फलस्वरूप केवल १८ वर्ष की आयु में इतिहास प्रसिद्ध `नाशिक षडयंत्र’ अभियोग में नारायणराव को छः महीने का दंड दिया गया । (२१ नवंबर १९०९ को बाबाराव को आजीवन कारावास दिया गया । उसके पहले कर्णावती में हुए बमविस्फोट कांड में नारायणराव भी पकडे गए थे । लंदन में विनायकरावपर भी ब्रिटिश शासन की वक्रदृष्टि थी । पुलिस की मार सहकर भी वे अंत में बिना किसी प्रमाण के निर्दोष छूट गए । १८ दिसंबर १९०९ को वे घर आए ही थे, कि २१ दिसम्बर को नाशिक में अनंत कान्हेरेने जेक्सन की हत्या कर दी । उसी रात नारायणराव पकड लिए गए तथा पुनः छल यातना के चक्र में फंसा दिए गए ।
२१ जून १९११ को छूटनेपर उन्हें किसी भी महाविद्यालय में प्रवेश नहीं मिल रहा था । अंत में कोलकाता के `नेशनल मेडिकल महाविद्यालय में’ उन्हें प्रवेश मिल गया । आर्थिक बाधाएं, शासकीय गुप्त पुलिसों का पीछा, पुन:पुनः होनेवाली पूछताछ का सामना करते हुए १९१६ में नारायणरावने `ऐलोपेथी’ तथा `होमियोपेथी’ दोनों विषयों की उपाधि प्राप्त की । `दंतचिकित्सा’में भी उन्होंने उपाधि प्राप्त की । इन दिनों अध्ययन के व्यय के लिए उन्होंने बीच-बीच में व्यापारी के पास लेखापाल का काम भी किया । पढते समय मैडम कामाद्वारा फ्रांस से भेजी गई आर्थिक सहायता की तुलना किसी से नहीं की जा सकती !
कोलकाता में उन्हीं दिनों नारायणराव तथा डॉ. हेडगेवार में मित्रता हो गई । उन दिनों तीन-चार मित्रों का एक समूह बन गया था । आर्थिक बाधा तो सदा की थी ही । भोजनालय से दो व्यक्तियों का भोजन मंगाना तथा चार व्यक्तियोंने बांटकर खाना, ऐसे ही चल रहा था । वह भी पूरा नहीं पडता । `जो भोजन आप भेजते हैं वह पूरा नहीं पडता है ऐसी शिकायत करनेपर भोजन देनेवाले से थोडा वाद-विवाद हुआ; परंतु उसने कहा, “तुम लोगों में से कोई एक यहां एक दिन आकर खाए । वह जितना खाएगा उतना मैं भेज दिया करूंगा ।”
निवासगृह आनेपर विचार-विमर्श के पश्चात निर्णय किया गया कि डॉ. हेडगेवार खाने के लिए जाएं । हेडगेवार खाना खाने गए तथा उन्होंने बाईस-चौबीस रोटियां खाईं ! भोजनालयवाला देख रहा था । उसकी वृति एक दानी जैसी थी । उसने अपना वचन निभाया । वह प्रतिदिन उतनी रोटिया भेजने लगा तथा चारों की अच्छी उदरपूर्ति होने लगी ।
इस प्रसंग के विषय में विख्यात लेखक पु.भा. भावे एक लेख में लिखते हैं, “पेटूपन की यह कथा हिंदुत्व के लिए अमृतवाणी बन गई, क्योंकि उस समय खाया गया प्रत्येक ग्रास (निवाला)दिन-प्रति दिन हिंदुजाति को तेजपुंज एवं पराक्रमी बना गया । सन् १९४० तक अनेक स्थानोंपर मुस्लिम अत्याचारों का मर्दन किया गया । यह सावरकर- हेडगेवार की मैत्री के कारण हो सका !”
चहुमुखी संसार !
चिकित्सीय उपाधि प्राप्त करने के उपरांत १९१६में मुंबई में ही चिकित्सक का व्यवसाय करने का निश्चय कर डॉ. नारायणरावने औषधालय बनाया । इस औषधालय के उद्घाटन के लिए उन्होंने साहित्यसम्राट न.चिं. केळकर से विनती की । उन्होंने यह प्रेमपूर्वक स्वीकार किया, क्योंकि वे भी डॉ. नारायणराव की देशभक्ति के प्रशंसक थे । इससे पूर्व १९१५ में सौ. येसूवहिनी के आग्रहपर उन्होंने विवाह कर लिया । उसके कारण मुंबई में औषधालय के साथ ही घर-संसार भी चलने लगा ।
एक ओर व्यवसाय, दूसरी ओर प्रपंच, तीसरी ओर गुप्त रूप से क्रांतिकार्य तथा क्रांतिकारियों की सहायता प्रत्यक्ष रूप से हो सके उतना समाजकार्य उन्होंने अपने चहुंमुखी दैनिक जीवन की शैली में सम्मिलित कर लिया ।
लोकमान्य तिलक का अनुयायित्व !
मुम्बई में लो. तिलक के सभी कार्यक्रमों को यशस्वी बनाने के लिए श्रम करनेवाले अनुयायियों में डॉ. नारायणराव सदैव अग्रणी रहते थे । लो. तिलक के दौरे में वे अनेक बार उनके साथ रहते । कांग्रेस के अधिवेशन में वे नियमित रूप से उपस्थित रहते थे । मुंबई के सार्वजनिक कार्यों में उनका नाम विख्यात होने के कारण वे कुछ समय तक मुंबई नगरपालिका के निर्वाचित सदस्य भी रहे । प्रारंभ में अन्य नेताओं के समान उन्होंने कांग्रेस के सुदृढ स्थिति के माध्यम से ब्रिटिश विरोधी सत्याग्रह तथा विधायक कार्यक्रमों में भाग लिया तथा यातनाएं सही । १९२५ के उपरांत रा.स्व. संघके प्रसारमें मन:पूर्वक सहायता की तथा उसके पश्चात १९३७ से हिंदुमहासभा के माध्यम से उन्होंने अनेक कार्य किए । इस काल में अंततक हिंदुस्तान के हितार्थ तथा स्वतंत्रताप्राप्ति हेतु एवं हिंदुहित हेतु यह सूत्र कभी भी नहीं छूटा । क्रांतिकार्य के लिए वे गुप्त रूप से सहायता करते थे । स्वयं की शिक्षा पूर्ण कर व्यवसाय तथा घर-संसार बसाते हुए भी प्रभावी भाषण, लेखन तथा विधायक सामाजिक कार्यके द्वारा दोनों बडे बंधुओं के कार्य को पूरक ऐसा कार्य वे करते रहे ।
लेखनकार्य तथा समाजकार्य !
अब्दुल रशीदद्वारा स्वामी श्रद्धानंद की ह्त्या करने के उपरांत उनके स्मरणार्थ डॉ.ना.दा. सावरकरने `श्रद्धानंद’ नाम का साप्ताहिक प्रारंभ किया । `इस साप्ताहिक के लेखों तथा बुद्धिवाद से मैं अति प्रभावित हुआ’, ऐसा पु.भा. भावेने कहा है । १० जनवरी १९२७ से १० मई १९३० तक वे `श्रद्धानंद’के संपादक तथा संचालक रहे ।
लोकमान्य के निधन के उपरांत गिरगांव चौपाटीपर उनके शवदहन संस्कार के लिए किसी भी प्रकार का स्मारक बनाने के लिए ब्रिटिश प्रशासन अनुमति नहीं दे रहा था । परंतु अनेक `तिलक भक्तोंने उस स्थान तथा उसकी पवित्रता की रक्षा की । १९३० में स्मारक बनाया गया । इन सब कार्यों में डॉ. नारायणराव का सहयोग था । चौपाटीपर हिंदु धर्म की निंदा कर ईसाई धर्मप्रसारक एक मिशनरी को डॉ. नारायणराव, डॉ. वेलकर तथा सुरतकर इन तीनोंने ऐसा पाठ पढाया कि, उसने पुनः वहां पांव तक नहीं रखा ।
मुंबई में प्रत्येक स्थानपर पठानों के स्थानपर गोरखे रक्षक रखना यह डॉ. नारायणरावने ही किया । वे श्रद्धानंद महिलाश्रम के प्रमुख संस्थापकों में से एक थे । इस आश्रम के निर्माण तथा उसके उपरांत प्रत्यक्ष कार्य में भी उन्होंने मन:पूर्वक सहयोग दिया । गोवा के गावडे समाज के शुद्धीकरण का जो प्रचंड आंदोलन प.पू. विनायक महाराज मसूरकरने प्रारंभ किया, उस कार्य में डॉ. नारायणरावने सर्व प्रकार से सहायता की । सन् १९२५, १९३७, १९३९ में मुंबई में हुए हिंदु-मुस्लिम दंगों में प्रत्याघात करने हेतु हिंदुओं की सुरक्षा का भार उन्होंने अपने ऊपर ही लिया !
विशेष साहित्यसेवा !
३०अप्रेल १९३०को नारायणराव को हुए कारावास के कारण `श्रद्धानंद’ साप्ताहिक का कार्य ठप्प पड गया । राजकीय कार्य के तनाव में भी उन्होंने साहित्य सेवा की । `वसंत’ उपनाम से लिखे काव्य, १८५७ के समर की पाश्र्वभूमिपर लिखा `मरण की लग्न’ (मृत्यु या विवाह) उपन्यास, `जातिहृदय’ नामसे लिखा `समाजरहस्य’ उपन्यास, `जाईचा मंडप'(जईका मंडप) उपन्यास; सेनापति टोपे का चरित्र, `हिंदूंचा (हिन्दुओं का) विश्वविजयी इतिहास’ इत्यादि उनके साहित्य को ख्याति मिली । स्वा. सावरकरके `हिंदुत्व’ तथा `हिंदुपदपादशाही’ इन महत्त्वपूर्ण अंग्रेजी ग्रंथों का मराठी अनुवाद भी उन्होंने किया ।
३० जनवरीr १९४८ को गांधी की हत्या होने के उपरांत दूसरे दिन उनके घरपर गुंडोंने पथराव तथा आक्रमण कर रोगी डॉ. नारायणराव को अत्यधिक घायल कर दिया । वे अचेत हो गए । उतने में ही पुलिस के आनेपर उनके प्राण तो बच गए; परंतु उन्हें के.ई.एम्. चिकित्सालय में भरती करना पडा । उन्हें बंदी बनाकर लाने की शासकीय आज्ञा के कारण वहांपर भी उनपर पुलिस का पहरा था । इससे डॉ. नारायणराव बच तो गए; परन्तु इस कारण उनका स्वास्थ्य गिरता ही गया । अक्तूबर १९४९के पहले सप्ताह में पुणे के `दै. प्रभात’के लिए `हिंदूंओं का विश्वविजयी इतिहास’ इस लोकप्रिय लेखमाला का लेख लिखते-लिखते डॉ. नारायणराव को अर्धांगवायु का झटका लगा तथा वे बेसुध हो गए तथा इसी अवस्था में १९ अक्टूबर १९४९को उनका दु:खद निधन हो गया ।
अपने दोनों भाईयों के समान ही देशसेवा में अग्रसर रहकर डॉ. नारायणराव सावरकरने `सावरकर’ वंश का नाम उज्ज्वल कर दिया !