आज की स्थिति में विद्यार्थियों पर संस्कार डालने के लिए शिक्षक की भूमिका महत्त्वपूर्ण है । उसपर यदि शिक्षक साधनाकरनेवाले हों तो उनके लिए यह सहज ही संभव होता है । किंतु कालानुरूप यह शिक्षणव्यवस्था भारतीय संस्कृति से नष्ट होती गई । आज की शिक्षा पद्धति पाश्चात्य विचारोंपर आधारित है, यह ध्यान में रखकर ‘आज की शिक्षापद्धति तथा शिक्षक के कर्तव्य’में होनेवाले परिवर्तन एक शिक्षिका के लिखे लेखद्वारा आगे दे रहे हैं ।
आश्रम की सात्विकता का लाभ विद्यार्थी तथा आचार्य दोनों को होना !
प्राचीन समय में भारत में गुरुकुल पद्धति अस्तित्व में थी, जिसमें विद्यार्थियों के सर्वांगीण विकास का उत्तरदायित्व भी आचार्यपर ही होता था । विद्यार्थी गुरुगृह में रहकर शिक्षा ग्रहण करते थे । ‘आचार्य देवो भव’ ऐसी प्रतिमा विद्यार्थियों के मन में सिद्ध होती थी, जिससे आचार्य का स्वयं साधना करने वाले होने से विद्यार्थियोंपर भी उसी प्रकार के संस्कार होते थे । इसके अतिरिक्त आश्रम की सात्विकता का लाभ विद्यार्थी तथा आचार्य इन दोनों को ही होता था ।
शालेय पद्धति में हुए परिवर्तन
पाठशाला में बच्चोंपर अच्छे संस्कार होंगे, इसकी निश्चिति पालकों को होना :आरंभकाल में पाठशाला में पढानेवाले शिक्षक के सादे रहन सहन तथा विचारों के आदर्श विद्यार्थियों के सामने होते थे । उनके सात्विक आचार विचार विद्यार्थियोंद्वारा अनुकरण करने योग्य होते थे । इसी कारण पाठशाला जानेपर अपने बच्चोंपर अच्छे संस्कार होंगे, इसकी निश्चिति पालाकों कोथी ।
‘संस्कार, धर्माचरण’ ये शब्द ही समाज से लुप्त होते जा रहे हैं, जिससे समाज का बडी मात्रा में अध:पतन होना : जैसे-जैसे शिक्षापद्धतिपर पाश्चात्य संस्कृति का प्रभाव पडता गया, वैसे-वैसे शाला के शिक्षक में भी परिवर्तन होता गया । आगे जाकर अंग्रेजी माध्यम की पाठशालाएं आर्इं ,इस कारण शिक्षक ‘सर, मैडम’ कहलवाकर ही स्वयं को गौरवान्वित समझने लगे । उसी प्रकार विद्यार्थियों में भी इसी प्रकार के संस्कार होते हुए दिखाई दे रहे हैं । ‘संस्कार, धर्माचरण’ ये शब्द ही समाज से लुप्त होते जा रहे हैं, जिससे बडी मात्रा में समाज का अध:पतन होते हुए दिखाई देता है ।
अन्य धर्मीय विद्यार्थियों की शालेय स्थिति
अन्य धर्मीय विद्यार्थियों को शाला में शिक्षा के साथ- साथ उनके धर्म की शिक्षा देने की व्यवस्था भी की जाती है । किंतु हिंदु समाज को इस प्रकार की धर्मशिक्षा नहीं दी जाती ।
सामाजिक स्थिति
इस दौडधूप के युग में ऐसी संस्कारक्षम पीढी निर्माण न होने के अनेक कारण हैं । माता-पिता को नौकरी के कारण बच्चों की ओर ध्यान देने के लिए समय ही नहीं मिलता । विभक्त कुटुंब पद्धति के कारण घर में संस्कार विकसित करनेवाले दादा-दादी, नाना-नानी नहीं रहे । इस कारण बच्चे छोटे होंतो उन्हें झूलाघर में रखा जाता है, अथवा वे अपने घर में बैठकर दूरदर्शन के कार्यक्रम देखने में अपना समय व्यतीत करते हैं । इसमें उन्हें अच्छा-बुरा बतानेवाला कोई भी नहीं होता ।
राजकीय परिस्थिति
पुराने समय में राजा का धर्माचरणी होनेसे, वे ॠषिमुनियों के मार्गदर्शनानुसार राज्य का कार्यभार संभालते थे; परंतु आज के राज्यकर्ताओं के धर्माचरणी न होने से हिंदु संस्कृति का जतन तथा संवर्धन करने में वे सक्षम नहीं हैं । शिक्षा संस्थाएं भी इन राज्यकर्ताओं के अधिकार में होने के कारण उसमें से संस्कारक्षम विद्यार्थी तो दूर, अच्छे विद्यार्थी निर्माण होने की भी अपेक्षा हम नहीं कर सकते ।
आज की शिक्षा पद्धति
प्रचलित शिक्षाप्रणाली में विद्यार्थी मानसिक रूप से रुग्ण बनते जा रहे हैं । उन्हें शिक्षा का आनंद मिलने की अपेक्षा उसमें होनेवाली झंझटें ही अधिक त्रस्त करने लगी हैं । अब उसके भी आगे पाठ्य पुस्तकों से वास्तविकता लुप्त होती जा रही है, इस कारण विद्यार्थियोंपर संस्कार होने की रत्तीभर भी संभावना नहीं । एसी परिस्थिति में यदि हिंदु संस्कृति टिकाए रखनी हो तो शिक्षक की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण होती है । भावी काल में यदि शिक्षक साधक होता है, तभी वह समाज को संस्कारक्षम शिक्षा दे सकता है । शिक्षक का साधक होना यानी निश्चित रूप से क्या करना है ?
प्रतिदिन जीवन में घटनेवाली प्रत्येक घटना के पीछे का कारण ढूंढकर उसपर उपाय बताना, अर्थात साधना सिखाना: अभ्यासक्रम के तात्विक अंग सिखाकर विद्यार्थियों को आनंद नहीं मिल सकता । उसके लिए अभ्यासक्रम के अतिरिक्त प्रत्येक घटना का आध्यात्मीकरण करना चाहिए । प्रतिदिन जीवन में घटनेवाली प्रत्येक घटना के पीछे का कारण ढूंढकर उसपर उपाय बताना, अर्थात साधना सिखाना ।
धर्माचरण तथा साधना : स्वयं नियमित साधना कर विद्यार्थियों के सामने आदर्श निर्माण करना चाहिए । विद्यार्थियों को सरल पद्धति से साधना समझाकर बताने जितना आवश्यक ज्ञान शिक्षक को होना ही चाहिए ।
अभ्यासी वृत्ति: सतत सत्य जानने की इच्छा तथा उसके लिए अभ्यासी वृत्ति रखना ।
कृत्य: संस्कार करने के लिए केवल उपदेश न कर अपनी कृत्य से सिखाना ।
संस्कार तथा धर्माचरण सिखाने के लिए कुछ उपक्रम
अ. वर्गके ग्रंथालय में संस्कार करने वाले तथा धर्मशिक्षा देनेवाले ग्रन्थों का समावेश करना ।
आ. पाठशाला के प्रशासकीय समय के अतिरिक्त अन्य समय में संस्कार वर्गों का आयोजन करना ।
इ: पालक सभाओ का औचित्य साधकर पालकों से विद्यार्थियों की प्रगति के साथ ही संस्कार, धर्माचरण, उसीप्रकार साधना आदि विषयोंपर चर्चा करना ।
ई. पाठशाला ओं की बाल सभाओ के निमित्त(जयंती, पुण्यतिथि, अन्य विशेष दिनों में) धर्माचरणी व्यक्ति, संत , साधक इनका मार्गदर्शन विद्यार्थियों को मिले इसके लिए (जाणीवपूर्वक) नियोजन करना ।
उ. अपने सहयोगी शिक्षक को साधना बताना एवं दैनंदिन उपक्रम में उनका सहयोग लेना ।
ऊ. कार्यानुभव जैसे विषयों में देवालयों की स्वच्छता, धार्मिक कार्यक्रमों में सहभागी होना,जैसे उपक्रम लेना ।
इतनी सारी बातें शिक्षकद्वारा बतानेपर विद्यार्थी तथा समाज सुसंस्कृत हो सकते हैं । इस पद्धतिद्वारा शिक्षक की समष्टि साधना होने से ऋषिऋण तथा समाजऋण चुकाकर वह ईश्वरीय कृपा का पात्र होगा ।
– श्रीमती वंदना करचे (शिक्षिका), पिंपरी.