मध्यकालीन भारत में विदेशी आतताइयों से सतत संघर्ष करने वालों में छत्रपतिशिवाजी, महाराणा प्रताप और बुंदेल केसरी छत्रसाल के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं । बुंदेल केसरी छत्रसाल को ‘शत्रु और संघर्ष’ ही विरासत में मिले थे । उन्होंने अपने पूरे जीवनभर स्वतंत्रता और सृजन के लिए ही सतत संघर्ष किया । उन्होंने विस्तृत बुंदेलखंड राज्य की गरिमामय स्थापना ही नहीं की थी, वरन साहित्य सृजन कर जीवंतकाव्य भी रचे । छत्रसालने अपने ८२ वर्ष के जीवन और ४४ वर्षीय राज्यकाल में ५२ युद्ध किये थे ।उनके पिता चंपतरायने पूरे जीवनभर विदेशी मुगलों से संघर्ष करते हुए अपने ही विश्वासघातियों के कारण सन् १६६१ में अपनी वीरांगना पत्नी रानी लालकुंआरि के साथआत्माहुति दी ।
इतिहास पुरुष : महाराजा छत्रसाल
इतिहास पुरुष छत्रसाल का जन्म ज्येष्ठ शुक्ल ३ संवत १७०७ (सन् १६४१) को वर्तमान टीकमगढ जिले में हुआ । अपने पराक्रमी पिता चंपतराय की मृत्यु के समय वे मात्र १२ वर्ष के ही थे । वनभूमि की गोद में जन्में, वनदेवों की छाया में पले, वनराज से इस वीर का उद्गम ही तोप, तलवार और रक्त प्रवाह के बीच हुआ ।उनका जन्म होते ही परिस्थिति अत्यंत विकट थी । पारंपरिक सत्ता शत्रुओंने छीन लीथी, निकटतम स्वजनों के विश्वासघात के कारण उनके वीर मां-पिताजी को आत्महत्या करनी पडी, उनके पास कोई सैन्य बल अथवा धनबल भी नहीं था, ऐसे १२-१३ वर्षीय बालक की मनोदशा वैâसी होगी ? परंतु उनके पास बुंदेली शौर्य का संस्कार, वीर मां-पिता का अदम्य साहस और आत्मविश्वास था । इसलिए वे निराश न होकर अपने भाई के साथ पिता के मित्र राजा जयसिंह के पास पहुंचकर सेना में भरती होकर आधुनिक सैन्य प्रशिक्षण लेना प्रारंभ कर दिया ।
अपने पिता के वचन को पूरा करने के लिए छत्रसालने पंवार वंश की कन्या देवकुंअरि से विवाह किया ।उस समय छत्रपति शिवाजी महाराज हिंदवी राज्य के लिए कृत्यशील थे । छत्रसालजीमुगल सत्ता के कारण दुखी थे, इन परिस्थितियों में उन्होंने शिवाजी से मिलना उचित समझा और सन १६६८ में दोनों राष्ट्रवीरों की जब भेंट हुई तो शिवाजीने छत्रसाल को उनके उद्देश्यों, गुणों और परिस्थितियों का आभास कराते हुए स्वतंत्र राज्य स्थापना की मंत्रणा दी एवं समर्थ गुरु रामदास के आशीषों सहित ‘भवानी’ तलवार भेंट की-
करो देस के राज छतारे
हम तुम तें कबहूं नहीं न्यारे।
दौर देस मुगलन को मारो
दपटि दिली के दल संहारो।
तुम हो महावीर मरदाने
करि हो भूमि भोग हम जाने।
जो इतही तुमको हम राखें
तो सब सुयस हमारे भाषे।
शिवाजी से स्वराज का मंत्र लेकर सन १६७० में छत्रसाल वापस अपनी मातृभूमि लौटआए परंतु तत्कालीन बुंदेल भूमि की स्थितियां बिलकुल भिन्न थीं । अधिकांश रियासतदार मुगलों के मनसबदार थे, छत्रसाल के भाई-बंधु भी दिल्ली से लडने को तैयारनहीं थे ।छत्रसालजीके बचपन के साथी महाबली तेलीने उनकी धरोहर, थोडी-सी पैत्रिक संपत्ति के दी जिससे छत्रसालजीने ५ घुडसवार और २५ पैदलों की छोटी-सी सेना तैयारकर ज्येष्ठ सुदी पंचमी रविवार वि.सं. १७२८ (सन १६७१) के शुभ मुहूर्त मेंऔरंगजेब के विरुद्ध विद्रोह का बिगुल बजाते हुए स्वराज्य स्थापना का बीडा उठाया ।
संघर्ष का शंखनाद
छत्रसाल की प्रारंभिक सेना में सैन्य, राजा नहीं थे अपितु तेली बारी, मुसलमान, मनिहार आदि जातियों से आनेवाले सेनानी ही थे । चचेरे भाई बलदीवान उनके साथ थे ।छत्रसालने अपने माता-पिता के साथ विश्वासघात करने वाले सेहरा के धंधेरों पर पहला आक्रमण किया । कुंअरसिंह को कैद किया तथा उसकी मदद को आये हाशिम खांकीधुनाई की और सिरोंज एवं तिबरा लूटे गये । लूट की सारी संपत्ति छत्रसालने अपनेसैनिकों में बांटकर पूरे क्षेत्र के लोगों को उनकी सेना में सम्मिलित होने के लिएआवाहन किया । कुछ ही समय में छत्रसाल की सेना में भारी वृद्धि होने लगी और उन्होंने अनेक क्षेत्र जीत लिए ।सन १६७१ में ही कुलगुरु नरहरि दास ने भी विजय का आशीष छत्रसाल को दिया।
ग्वालियर की लूट से छत्रसाल को सवा करोड रुपये प्राप्त हुए । इस कारण औरंगजेबने आठ सवारों सहित तीस हजारी सेना भेजकर गढाकोटा के पास छत्रसालपर धावा बोलदिया । घमासान युद्ध हुआ । दणदूल्हा (रुहल्ला खां)पराजित हुआ तथा भरपूर युद्धसामग्री छोडकर जान बचाकर उसे भागना पडा ।सन १६७१-८० की अवधि में छत्रसालजीने चित्रकूट से लेकर ग्वालियर तक और कालपी से गढाकोटा तक प्रभुत्व स्थापित कर लिया ।सन १६७५ में छत्रसाल की भेंट संत प्राणनाथ से हुई जिन्होंने छत्रसाल को आशीर्वाद दिया-छत्ता तोरे राज में धक धक धरती होय जित जित घोड़ा मुख करे तित तित फत्ते होय।
बुंदेले राज्य की स्थापना
आतंक के कारण अनेक मुगल फौजदार स्वयं ही छत्रसाल को राज्य देने लगे ।बघेलखंड, मालवा, राजस्थान और पंजाब तक छत्रसाल ने युद्ध जीते । परिणामतःयमुना, चंबल, नर्मदा और टोंस क्षेत्रमें बुंदेला राज्य स्थापित हो गया ।सन १७०७ में औरंगजेब की मृत्यु हो गई । उसके पुत्र आजमने छत्रसालजी को मात्र सूबेदारी देनी चाही पर छत्रसालने स्वाभिमानी से इसे अस्वीकार कर दिया ।
महाराज छत्रसालपर इलाहाबाद के नवाब मुहम्मद बंगस का ऐतिहासिक आक्रमण हुआ। इस समय छत्रसाल लगभग ८० वर्ष के वृद्ध हो चले थे और उनके दोनों पुत्रों मेंअनबन थी । जैतपुर में छत्रसाल पराजित हो रहे थे । ऐसी परिस्थितियों में उन्होंने बाजीराव पेशवा को पुराना संदर्भ देते हुए सौ छंदों का एक काव्यात्मक पत्र भेजा जिसकी दो पंक्तियां थींजो गति गज और ग्राह की सो गति भई है आजबाजी जात बुंदेल की राखौ बाजी लाज।
फलतः बाजीराव की सेना आनपर बंगश की पराजय हुई तथा उसे प्राण बचाकरअपमानित हो, भागना पडा । छत्रसाल युद्ध में क्षीण हो गए थे, लेकिन मराठों के सहयोग से उन्होंने सम्मान से मुगलों से युद्ध किया और विजयी हुए ।छत्रसालजीने अपने अंतिम समय में राज्य के बंटवारे में बाजीराव को तीसरा पुत्र मानते हुए बुंदेलखंड झांसी, सागर, गुरसराय, काल्पी, गरौठा, गुना, सिरोंज और हटा आदि हिस्से के साथ राजनर्तकी मस्तानी भी उपहार में दी ।छत्रसालजीने अपने दोनों पुत्रों ज्येष्ठ जगतराज और कनिष्ठ हिरदेशाह को जनता को समृद्धि और शांति से राज्य-संचालन हेतु बांटकर अपना दायित्व निभाया ।यही कारण था कि छत्रसाल को अपने अंतिम दिनों में वृहद राज्य के सुप्रशासन से (उस समय) एक करोड आठ लाख रुपये की आय होती थी । उनके एक पत्र से स्पष्ट होता है कि उन्होंने अंतिम समय १४ करोड रुपये राज्य के खजाने में (तब) शेष छोडे थे ।प्रतापी छत्रसाल ने पौष शुक्ल तृतीया भृगुवार संवत् १७८८ (दिसंबर १७३१) कोछतरपुर (नौ गांव) के निकट अपना शरीर त्यागा और भारतीय आकाश पर सदा-सदा के लिए जगमगाते सितारे बन गये।
कला का सम्मान करनेवाले
छत्रसाल की तलवार जितनी धारदार थी, कलम भी उतनी ही तीक्ष्ण थी । वे स्वयं कवितो थे ही कवियों का श्रेष्ठतम सम्मान भी करते थे । अद्वितीय उदाहरण है कि कविभूषणके बुंदेलखंडमें आने पर आगवानीमें जब छत्रसालने उनकी पालकीमें अपना कंधालगाया था ।बुंदेलखंड ही नही संपूर्ण भारत देष ऐसे महान व्यक्तित्व के प्रति कृतज्ञ रहेगा ।
संदर्भ :http://www.bundelkhand.in/portal/history/Bundeli-Kesari-Chhatrasal