दिशाहीन बनी राष्ट्र की वर्तमान पीढी !
‘वर्तमान में अपने राष्ट्र की नई पीढी नीतिहीन बन गई है । बालकों का चाल-चलन अयोग्य हो रहा है । बच्चे ‘कार्टून’जैसे विकृत कार्यक्रमों के शिकार हो रहे हैं । बच्चों में स्वाभिमान एवं राष्ट्रनिष्ठा दिखाई नहीं देती । जिस शिक्षा से राष्ट्र में राष्ट्रप्रेमी पीढी सिद्ध नहीं होती, उसे शिक्षा कह ही नहीं सकते । ‘मैं एवं मेरा’ ऐसी संकीर्ण मानसिकतावाली पीढी निर्मित हुई है ।
विद्यार्थियों का मन व्यापक हो, ऐसी शिक्षा देना आवश्यक हो गया है ।
अध्यापको, हम विद्यार्थियों को जो शिक्षा देते हैं, उसके परिणामस्वरूप स्वार्थी पीढी निर्माण हो रही हो, तो अपने राष्ट्र का विनाश अटल है । आज ऐसी शिक्षा नहीं दी जाती जिससे विद्यार्थियों के मन एवं विचार व्यापक बनें । यदि इसमें परिवर्तन नहीं लाया गया तो राष्ट्र के साथ हमारा भी अंत निश्चित है ।
अध्यापकों का महत्त्व
समाज का एकही घटक इस स्थिति में परिवर्तन ला सकता है और वह घटक है अध्यापकवर्ग । राष्ट्र का खरा सेनापति अध्यापक ही है; परंतु एक राष्ट्र के सेनापति का अंत होने से राष्ट्र दिशाहीन होता है । मित्रो, समाज की कुल स्थिति एवं घर की समस्या से मनपर तनाव आ जाता है, ‘इस स्थिति में परिवर्तन अनिवार्य है ।’, ऐसा कह कर ही हम आश्वस्त हो जाते हैं ।
अध्यापकों को तनावमुक्त रहने से ही अच्छी एवं स्वस्थ पीढी का निर्माण होना संभव
इन सब तनावों से हमें मुक्त होना चाहिए । अध्यापक के तनाव का परिणाम विद्यार्थियोंपर होता है । इसी कारण उपरोक्त सर्व प्रक्रिया में अध्यापक का आनंदित रहना आवश्यक है । अध्यापक के आनंदित रहने से विद्यार्थी आनंदित होंगे, इसके परिणामस्वरूप राष्ट्र आनंदित होगा । ऐसी स्थिति में हम तनावमुक्त एवं आत्मविश्वासी पीढी विकसित कर राष्ट्र का रक्षण कर सकते हैं ।
अध्यापको, तनावमुक्त अध्यापन कैसे करेंगे ?
तनावमुक्त होने हेतु निम्नलिखित सूत्रों का उपयोग हमें अपने अध्यापन में करना चाहिए । इन सर्व सूत्रों को हम कार्यरूप में कैसे ला सकते हैं, इस विषय की ओर अधिकाधिक ध्यान देंगे ।
नकारात्मक न बोलें : कक्षा में प्रवेश करने के पश्चात अध्यापक के मुख से एक भी नकारात्मक शब्द न निकले । कुछ अध्यापक विद्यार्थी को कहते हैं, ‘तेरा कुछ उपयोग नहीं है । तू किसी काम का नहीं है । तू माता – पिता को कष्ट देने के लिए ही आया है । तेरे कारण संपूर्ण कक्षा को कष्ट होता है ।’ ये वाक्य बच्चे के अंतर्मन को ठेस पहुंचाते हैं । ऐसा बोलने से अपने मनपर भी तनाव आता है । बिंब-प्रतिबिंब तत्त्व के अनुसार उस विद्यार्थि को जितना दुःख होता है, उससे अधिक दुःख हमें होता है । ‘इस तनाव का मूल मुझमें ही है; क्योंकि मैंने नकारात्मक बात कही । मेरे नकारात्मक विचारों ने ही मुझे दुःखी किया है, अर्थात मुझे निरंतर सकारात्मक ही बोलना चाहिए’, ऐसा विचार हरेक व्यक्ति को करना चाहिए ।
तुलना न करें : कई अध्यापकविद्यार्थियों में तुलना करते हैं, उदा. हम पढाई में कच्चे विद्यार्थी को कहते हैं, ‘देखो, वह कैसे पढाई करता है । तुझे क्यों नहीं आता ?’, ऐसी तुलना करने की अपेक्षा जो विद्यार्थी अच्छी पढाई करता है, उसकी प्रशंसा करें एवं वह पढाई कैसे करता है, यह बताएं । जो बच्चे पढाई नहीं करते, उनकी समस्याओं को समझकर उन समस्याओं का परिहार/निराकरण बताएं ।
सीखने की भूमिका में रहें : जो निरंतर अध्ययन करता है, वही अध्यापक है । स्वयं अध्ययन करने की भूमिका में रह कर विद्यार्थियों को विषय का अध्यापन कराना चाहिए ।
विद्यार्थियों से अधिकारवाणी में बोलना टालें: हम विद्यार्थी को अधिकारवाणी में कहते हैं, ‘मैं अध्यापक हूं ।’ कोई बात बच्चों को जब हम प्रेम से कहते हैं , तब सर्व प्रथम हमें आनंद मिलता है । इसी कारण अध्यापक अधिकारवाणी से कभी भी न बोलें ।
विद्यार्थियों का मित्र बनकर उन्हें पढाएं : हम बच्चों से मित्र नहीं, अपितु अध्यापक बनकर संवाद करते हैं । इस कारण अध्यापन करते समय हमारे मनपर अधिक मात्रा में तनाव रहता है । पांचवीं कक्षा के विद्यार्थियों को पढाते समय अध्यापक मन से पांचवीं कक्षा के विद्यार्थी बनकर पढाएं तो उन्हें आनंद मिलेगा ।
विद्यार्थियों के माता–पिता बनकर उन्हें पढाओ: मेरे घर के बच्चों से मेरा प्रेम है, इस लिए ‘उन्हें अच्छी पढाई करनी चाहिए’, ऐसा मुझे लगता है । उसी प्रेम से जब हम विद्यार्थियों को पढाते हैं, तब अध्यापकों के मुखपर आनंद दिखाई देगा तथा वे तनावमुक्त ही रहेंगे । घर के बच्चे अधिक प्रिय एवं पाठशाला के विद्यार्थियों को केवल नौकरी समझकर पढाना, ऐसी मानसिकता रखनेवाले अध्यापक को तनावमुक्त अध्यापन कभी भी साध्य नहीं होगा । जिस राष्ट्र में अध्यापक सर्व विद्यार्थियों की माता बनेंगे, उस राष्ट्र का सर्वांगीण विकास निश्चित रूप से होगा ।
विद्यार्थियों से अपेक्षा न रखें : किसी अध्यापक ने विद्यार्थियों को गणित के १० प्रश्न करके लाने को कहा है । विद्यार्थियों द्वारा ऐसा न करने से अध्यापक उन्हें डांटते हैं अथवा कभी-कभी मारते भी हैं । इस कृत्य से प्रथम अध्यापक के मनपर तनाव आता है । इसकी अपेक्षा विद्यार्थियों को शांत चित्त से समझकर लेना चाहिए एवं गणित करने के उपाय बताने चाहिए । अपेक्षा रखनेवाले अध्यापक पाठशाला में अथवा अपने परिवार में सर्वत्र तनाव में ही रहते हैं । हमें अपेक्षाविरहित अध्यापन करना चाहिए ।
कर्तृत्व अपना है, ऐसा न मानें : जो अध्यापक यह कर्तृत्व अपना है, ऐसा मानता है, वह निरंतर तनाव में रहता है । हमें यदि तनावमुक्त अध्यापन करना हो, तो प्रत्येक कार्य होने के पश्चात हमें उसे भगवान को अर्पण करना चाहिए । ऐसा करने से किसी भी कार्य को करने का तनाव मनपर नहीं रहता ।
अपने मन का अभ्यास करो : कक्षा के कुछ विद्यार्थियों पर अध्यापक क्रोधित होते हैं ; क्योंकि वे पढाई नहीं करते । ‘बच्चे पढाई नहीं करते; इसलिए क्रोध आता है’, ऐसा नहीं है, अपितु क्रोध यह स्वयं का अपना स्वभावदोष है । कक्षा के विद्यार्थियों में परिवर्तन आने से मैं आनंदित बनुंगा, ऐसा विचार न करें । ‘जब ‘क्रोध आना’ यह स्वभावदोष नष्ट होगा, उसी समय तनाव से मुक्त होकर मुझे आनंद मिलेगा’, ऐसा विचार करें ।
अपने स्वयं के स्वभावदोषों का अभ्यास करें तथा बच्चों के गुण देखें : अन्यों के दोषों का चिंतन करने से हम कभी भी तनाव से मुक्त नहीं हो सकते; क्योंकि ऐसा करने से मन के तनाव में वृदि्ध होती है । अन्यों के गुणों का चिंतन करने से हमें आनंद मिलता है । पाठशाला में विद्यार्थी, शिक्षक एवं मुख्याध्यापक इनके गुणों का निरीक्षण करें । अपने स्वभावदोष चुनकर उनका अभ्यास करें । उन्हें दूर करने से हम तनाव से मुक्त हो जाएंगे ।
स्वयं में परिवर्तन करें : हमें व्यक्ति एवं उनकी प्रकृति इनमें परिवर्तन करने की चेष्टा नहीं करनी चाहिए; क्योंकि यह अपने वश की बात नहीं है, उदा. पाठशाला के मुख्याध्यापक विचित्र आचरण करते हैं अथवा क्रोधित होकर बात करते हैं, तो उनमें परिवर्तन लाना अपने वश की बात नहीं है । मुझे स्वयं में परिवर्तन करके उनकी प्रकृति से मेल-जोल बढाना चाहिए । ऐसा ना करने से अपना पारिवारिक जीवन तथा अध्यापन, इन दोनोंपर उसका परिणाम होगा एवं हम निरंतर तनाव में रहेंगे ।
वर्तमान में रहो : घर में घटी घटनाओं के विचार मन में रख कर अध्यापक कक्षा में जाते हैं, तो वे ठीक से पढा नहीं पाएंगे । उन्हें लगता है , मैं पढा रहा हूं; परंतु बच्चे ही नहीं सुनते । अध्यापक को निरंतर वर्तमान में ही रहना चाहिए , ऐसी स्थिति में अपना अध्यापन तनाव से मुक्त हो सकता है ।
उपरोक्त सर्व सूत्र सुनकर आपके मन में प्रश्न उठा होगा किइन्हें हम कार्यरूप में कैसे लाएं ?’ इसके उत्तर स्वरूप अपने सामने छत्रपति शिवाजी महाराज का उदाहरण है । उन्होंने भवानीमाता की उपासना कर हिंदवी स्वराज्य की स्थापना की । हमने भी यदि अपने कुलदेवता का नामजप किया तो यह सर्व साध्य है । नामजप के कारण वाल्या का वाल्मीकि ऋषि में परिवर्तन हुआ । नामजप से विकारों को भी हम अपने वश में ला सकते हैं । स्वभावदोष एवं अहं – निर्मूलन प्रक्रिया प्रत्यक्ष में लाना आवश्यक है । इसकी सहायता से स्वयं में परिवर्तन लाकर हम तनाव से मुक्त अध्यापन सहजता से कर सकते हैं ।’
– श्री. राजेंद्र पावसकर (गुरुजी), पनवेल