आयुर्वेद के प्रणेता महर्षि चरक औषधीय जडी बुटियों की खोज में अपने शिष्यगण के साथ जंगलों एवंखाई-चोटियों में घूम रहे थे । उस समय चलते-चलते अचानक उनकी दृष्टि एक हरेभरे खेत में खिले हुए एक सुंदर पुष्पपर गई । आजतक ऐसा अद्विवतीय, अनुपम पुष्प इससे पूर्व उन्होंने कभी नहीं देखा था । उन्हें वह पुष्प तोडने की इच्छा हुई । परंतु नैतिक आदर्शों की जड दृढ होने से उन्होंने ऐसा करना उचित नहीं समझा । उनका मन विचलित हो रहा था । एक शिष्य ने उनकी यह दशा ताड ली । उसने (त्यामना) विनम्रता से पुछा, ‘‘गुरुवर्य ! यदि आप की आज्ञा हो तो, वह पुष्प मैं तोड लाऊं ? वह पुष्प तोडकर आपकी सेवा में अर्पित करूं ?’’
महर्षि चरक ने कहा, ‘‘वत्स ! निश्चितरूप से मुझे उस पुष्प की आवश्यकता रहेगी । परंतु खेत के खेत मालिक के आज्ञा के बिना पुष्प तोडना चोरी होगी ! महर्षि के इन उच्च आदर्शवादी तथा नैतिक तत्त्वों के समक्ष उपस्थित शिष्यों ने सिर झुका दिया ।
अपना भाष्य पूर्ण करते हुए वे आगे बोले, ‘‘शिष्यो, नैतिक जीवन तथा राजाज्ञा में कोई साम्य नहीं है । यदि राजा अपनी प्रजा की संपत्ति अपनी इच्छा से तथा मनानुसार कार्य कर केवल अपने के लिए व्यय कर रहा हो तो, वहां नैतिक आदर्श का पालन कैसे होगा ? तदुपरांत महर्षि अपने शिष्यगणों के साथ वहां से तीन मील तक पैदल चलकर उस खेत मालिक के घर गए एवं उसकी आज्ञा से ही उन्होंने वह पुष्प तोडा ।