हमारे अंतर्मन में सभी तरह के अनुभव, भावना, विचार, इच्छा, आकांक्षा आदि सब कुछ संग्रहित रहता है । फिर भी उसकी कल्पना बाह्यमन को तनिक भी नहीं रहती; क्योंकि अंतर्मन एवं बाह्यमन दोना में एक तरह का पर्दा रहता है । हमारे अंतर्मन के संस्कार हमारी कृति से जब निरंतर व्यक्त होते हैं, तब उन्हें ‘स्वभाव’ कहते हैं, उदा. कोई एक व्यक्ति बचपन से छोटे-छोटे कारणों से क्रोधित होता है तो हम उसे क्रोधी स्वभाव का व्यक्ति कहते हैं । कोई एक व्यक्ति उसे दिया गया कोई भी काम करने में निरंतर आलस्य दिखाता है, तो उसे हम आलसी कहते हैं ।
स्वभावदोष दूर करने के लिए स्वयंसूचना दें !
व्यक्ति के गुण एवं दोष दोनों का अंतर्भाव स्वभाव की विशेषता ओं में होता है । स्वभाव में विद्यमान दोषों के कारण व्यक्ति पर एवं उसके संपर्क में आनेवाले व्यक्तियों पर अनिष्ट परिणाम होता है । स्वभावदोष दूर करने के लिए स्वयं के अंतर्मन में योग्य संस्कार प्रतिबिंबित करना आवश्यक है । यह संस्कार प्रतिबिंबित करने के लिए उसी तरह का विचार मन में निरंतर करना पडता है, इसे स्वयंसूचना कहते हैं । इस में हम हमारे बाह्यमनद्वारा अंतर्मन को आवश्यक सूचना देते हैं । सूचना देने का अर्थ है सूचना की वाक्य रचना मन-ही-मन में कहना एवं उस में जो शब्द हैं उसकी ओर ध्यानपूर्वक लक्ष केन्द्रित करना । प्रत्येक स्वयंसूचना ५ बार कहना चाहिए । ऐसे दो या तीन दोषोंपर सूचना दिन में पांच बार देना संभव है । आरंभ में कुलदेवता अथवा अपनी पसंद के देवता का नामजप करते हुए मन एकाग्र करें एवं मन एकाग्र होते ही मन में सूचना के वाक्य कहें । स्वभावदोषों के लक्षण दर्शानेवाले कुछ प्रसंग, उन में दिखाई देनेवाले स्वभावदोष एवं उनपर सूचनाओं के कुछ उदाहरण अब हम देखेंगे । स्वभावदोषों के संबंध में सूचना देते समय प्रसंग, व्यक्ति इन सबका उन सूचनाओं में विचार होना आवश्यक है । अतः वह देते समय प्रसंगानुरूप, व्यक्तिनुरूप ही देनी चाहिए ।
स्वयंसूचना देने की पद्धतियां
स्वयंसूचना देने की प्रथम पद्धति है – ‘अयोग्य कृति का भान एवं उसपर नियंत्रण’
इस पद्धति में दिए गए सूचना के वाक्यरचना से अयोग्य विचार, भावना एवं कृतियों का व्यक्ति को भान होता है एवं उनपर नियंत्रण रखना व्यक्ति को संभव होता है । सूचना की वाक्यरचना-‘जब मेरे मन में अयोग्य विचार अथवा भावना आएगी अथवा मेरे हाथों से अयोग्य कृति हो रही होगी तब मुझे उसका भान होकर उसे प्रतिबंध करना संभव होगा ।’
१. सौरभ गणित का अभ्यास करते समय हर २ मिनटों से इधर-उधर देख रहा था । बीच में ही भाई से गप्पे लडा रहा था ।
इस प्रसंग में दिखाई देनेवाले उसके स्वभावदोष – एकाग्रता का अभाव एवं विषय का गांभीर्य न रहना । इन दोषों के लिए सूचना कैसी देनी चाहिए यह हम समझेंगे ।
सूचना – सौरभ के उदाहरण में एकाग्रता का अभाव इस दोष के लिए आगे लिखे नुसार सूचना दे सकते हैं, ‘गणित का अभ्यास करते समय जब-जब मेरा मन विचलित होगा अथवा मैं भैया से निरर्थक बोलूंगा तब मुझे उसका तुरंत भान होगा एवं मेरा मन फिर से गणित के अभ्यास पर एकाग्र होगा । गणित का अभ्यास गंभीरता से करने हेतु ‘गणित विषय में शत प्रतिशत गुण प्राप्त करना है, यह मैं ध्यान में रखूंगा ।’
विषय का महत्त्व ध्यान में लानेवाली इस प्रकार की सूचना भी हम दे सकते हैं । इस पद्धति से सूचनाएं कैसी दी जानी चाहिए इसके कुछ उदाहरण हम देखेंगे ।
२. स्वाती ने पाठशाला से घर आनेपर उसके भोजन का डिब्बा एवं पाठशाला का गणवेश बिछौने पर ही डाल दिया ।
स्वभावदोष – अव्यवस्थितपन
सूचना – ‘जब मैं मेरा भोजन का डिब्बा एवं पाठशाला का गणवेश अयोग्य ढंग से बिछौनेपर रखूंगी तब मुझे उसका भान होगा एवं मैं वह उचित स्थानपर योग्य ढंग से रखूंगी ।’
३. निर्धारित समय की अपेक्षा विलंब से घर पहुंचने पर संदीप को उसके पिताजी ने ‘कहां गए थे ? ऐसा पूछने पर उसने पिताजी को क्रोधित होकर उत्तर दिया ।
स्वभावदोष – क्रोधित होना एवं अशिष्टता
सूचना – ‘जब पिताजी मुझे ‘कहां गए थे ?’ ऐसा प्रश्न करेंगे, तब वे मेरे कल्याण के लिए पूछ रहे हैं यह ध्यान में रखकर मैं उन्हें शांति से एवं नम्रता से उत्तर दूंगा ।’
४. महाविद्यालय में अंग्रेजी विषय की कक्षा में शर्वरी ‘महाविद्यालय के स्नेहसंमेलन में मैं किस प्रकार सहभाग ले सकती हूं, मेरी वेशभूषा, केशभूषा कैसी होगी ?’ आदि विचार कर रही थी ।
स्वभावदोष – मनोराज्य में रममाण होना । हम कोई कृति करते समय उसके अतिरिक्त अन्य बातों का विचार करते हैं अथवा एक ही विचारप्रक्रिया में रममाण होते हैं, इस स्वभावदोष को मनोराज्य में रममाण होना कहते हैं । हम निरंतर इस प्रकार का विचार करते हैं, तब वह हमारा स्वभावदोष बन जाता है ।
सूचना – ‘महाविद्यालय में अंग्रेजी विषय की कक्षा में जब मैं स्नेहसंमेलन के विचारों में रममाण रहूंगी, तब मुझे उसका भान होगा एवं मैं तुरंत वर्तमान में आकर सीखाए जानेवाले विषय की ओर ध्यान दूंगी’ ।
अब हम विविध प्रसंगों में मन में प्रतिबिंबित होनेवाली प्रतिक्रियाओं के विषय में विचार करेंगे । प्रत्येक प्रसंग में व्यक्ति की कुछ ना कुछ प्रतिक्रिया होती है । वह प्रतिक्रिया अयोग्य होगी अथवा योग्य होगी । अयोग्य प्रतिक्रिया स्वभावदोषों के कारण एवं योग्य प्रतिक्रिया स्वभाव में विद्यमान गुणों के कारण होती है । सूचना देने से अयोग्य प्रतिक्रिया की अपेक्षा योग्य प्रतिक्रिया होती रही तो स्वभावदोषों के स्थान पर गुण निर्माण होते हैं । दूसरों पर टीका करना, चिडचिडाहट, क्रुद्ध होना, लडाऊ वृत्ति, हट्टीपना, संशयी वृत्ति आदि दोष नष्ट करने के लिए इस पद्धति का प्रयोग किया जाता है ।
विनय अत्यधिक समय तक बाहर खेलता है, इसलिए उसके पिताजी ने उसे अभ्यास करने को कहा । उस समय उसे बुरा लगा । यहांपर विनय के पिताजी के बोलने के पीछे का हेतु विनय के ध्यान में नहीं आया । उसके अत्यधिक समय तक बाहर खेलने से उसका अभ्यास नहीं हुआ था । वह पूरा करने की समझ उसके पिताजी ने उसे दी । इस उदाहरण में विनय के पिताजी उसे कहते हैं, ‘‘अब खेल पर्याप्त हुआ ; चलो अभ्यास करो, इसलिए उसे अच्छा नहीं लगा । अयोग्य प्रतिक्रिया की अपेक्षा योग्य प्रतिक्रिया निर्माण होने हेतु विनय स्वयं को आगे दिए अनुसार सूचना कर सकता है ।-
‘जब मेरे पिताजी ‘अब खेल पर्याप्त हुआ; अभ्यास करो’ ऐसा कहेंगे, तब वे वैसा क्यों बोल रहे हैं, यह मेरे ध्यान में आएगा एवं मैं अभ्यास करना आरंभ करुंगा ।’
५. अभिजीत को गुरुजनों ने वर्ग का वर्गप्रमुख होने को कहा । तब उसके मन में हमें अभ्यास करते हूए यह करना कैसे संभव होगा ? इतने बच्चों को संभालना हमारे क्षमता के परे है । वर्ग में दारासिंग समान सौरभने मेरा कहना माना नहीं तो क्या करेंगे ? ऐसी अनेक प्रतिक्रियाएं आई एवं उसने ‘मुझ से यह नहीं होगा ऐसा कहा । यहांपर आत्मविश्वास का अभाव, तथा भय एवं अन्यों का नहीं सुनना यह स्वभावदोष दिखाई देते हैं । यहां गुरुजनों ने हमें हमारी क्षमता देखकर ही वैसा कहा है अतः हमें आज्ञापालन करने हेतु त्वरित संमति देना यह योग्य कृति होगी ।
इसपर आगे दिए अनुसार सूचना दे सकते हैं-‘जब गुरुजन मुझे वर्ग के वर्गप्रमुख पद का उत्तरदायित्व लेने के लिए कहेंगे, तब मैं उसका त्वरित स्विकार करुंगा एवं उत्तरदायित्व निभाने में कुछ अडचन आई तो गुरुजनों का मार्गदर्शन लूंगा ।
हमें परीक्षा में प्रश्नपत्र ठीक ढंग से हल करना संभव होगा क्या ?, इसकी चिंता होना; मौखिक प्रश्नपत्र, साक्षात्कार को जाना, वक्तृत्व स्पर्धा में लोगों के सामने भाषण करना़, ऐसे प्रसंगों में भयभीत होना । इस प्रकार के प्रसंगों में जब मन में तनाव निर्माण होता है तब ‘प्रसंग का अभ्यास करना’, इस पद्धति का प्रयोग करते हैं । इस पद्धति में हम कठिन प्रसंग का सफलतापूर्वक सामना कर रहे हैं, यह कल्पना विद्यार्थी नामजप करते हुए करता है । इस से मन को उस प्रसंग का सामना करने का अभ्यास होने से प्रत्यक्ष प्रसंग के समय मनपर तनाव निर्माण नहीं होता ।
उदा. विद्यार्थी के मन में स्थित परीक्षा का भय दूर करने हेतु किस प्रकार से सूचना देना संभव है यह हम देखेंगे । प्रथम विद्यार्थी को चाहिए कि वह एक कुर्सीपर पीठ टिकाकर बैठे एवं आंखें बंद कर ३ से ४ मिनट तक कुलदेवता अथवा इष्ट देवता का नामजप करे । शांत मन से अगली सूचनाओं की ओर ध्यान देकर उन सूचनाओं से मन एकाग्र करे ।
सूचना – ‘ परीक्षा के सभी विषयों की मेरी सिद्धता हो चुकी है । कल परीक्षा है । अब किसी भी प्रश्न का उत्तर अच्छे ढंग से से लिख सकूंगा ऐसा मुझे प्रतीत हो रहा है । मैं परीक्षा गृह में समयपर पहुंच गया हूं । पहली घंटा बज चुका है । अपने स्थानपर आंखें बंद कर निर्विचार अवस्था में मैं शांत चित्त से बैठा हूं । अब दूसरा घंटानाद हो चुका है । मेरे हाथ में प्रश्नपत्र है । प्रत्येक प्रश्न पढकर एवं गुण देखकर मैं कौन से प्रश्न हल करनेवाला हूं इसका विचार मैंने किया । परीक्षा के सभी प्रश्न सरल हैं । प्रत्येक प्रश्न का उत्तर मैं समाधान कारक लिख रहा हूं। अंत में १० मिनट बाकी रहने की घंटा बजी है । मैंने शीघ्रता से सब पृष्ठों को देखकर सब उत्तर सही लिखे हैं क्या इसकी निश्चिंतता कर ली है । आखिरी घंटा बजा है एवं मैंने उत्तरपुस्तिका पर्यवेक्षकों के हाथ में लाकर दे दी। मैं अब घरपर आ गया हूं एवं घर में सभी को बता रहा हूं कि परीक्षा अच्छी हुई । अब मैं विश्रांति लेकर कलके प्रश्नपत्र की सिद्धता करनेवाला हूं ।
इसी प्रकार से अन्य प्रसंगों की सिद्धता हम कर सकते हैं । इस से इन प्रसंगों का आत्मविश्वास से सामना करना संभव होगा ।
संकलक – श्री. यज्ञेश सावंत, पनवेल.