१.‘छात्र’का परीक्षा में प्राप्त अंकों से नहीं अपितु उसमें विद्यमान सद्गुणों से ‘आदर्श’ बनना ।
छात्रो, आज हम जिस शिक्षा व्यवस्था से शिक्षा ठाहण कर रहे है, वह व्यवस्था संपूर्ण रूप से केवल ‘परीक्षा पद्धति’ है ! विद्यार्थी को कितने प्रतिशत अंक प्राप्त हुए हैं, उसपर उस बालक की गुणवत्ता उच्च अथवा निम्न सिद्ध होती है ।आदर्श शिक्षा का अर्थ है स्वयं में विद्यमान दोष दूर कर सद्गुणों का संवर्धन करने की प्रक्रिया !
किसी विद्यार्थी को ९० प्रतिशत अंक प्राप्त हुए हैं; परंतु उसमें अनेक स्वभाव दोष हैं । तो क्या उसका सर्वांगीण विकास हुआ है ? प्राप्त उच्चअंकों के साथ बालक के दोष समाप्त होने के संदर्भ में मूल्यमापन होना चाहिए ।किसी बालक को परीक्षा में उत्तम अंक मिलते है; परंतु यदि वह उद्दंड है, झूठ बोलता है, दूसरों को अपमानित करता है, तो क्या आप उसे बुदि्धमान कहेंगे ?हमारी वर्तमान शिक्षा पद्धति एकांगी है । उपरोक्त दोनों घटकों को परीक्षा केअंकों के समान ही महत्त्व प्रदान करना चाहिए । ऐसा न होनेपर बच्चों का सर्वांगीण विकास दिखाई नहीं देता । इसलिए हमें समाज में बच्चे अनुचित वर्तन करते हुए दिखाई देते हैं ।
२. केवल अंक प्राप्त करने की अपेक्षा सद्गुण आत्मसात करना ही आदर्श शिक्षा !
‘माता-पिता से उद्दंड व्यवहार करना, अपशब्द कहना, उलटा उत्तर देना, झूठ बोलना, अन्यों को कष्ट देना’ इत्यादि दुर्गुणों का प्रभाव बच्चोंपर दिखाई देता है ।इसलिए समाज, परिवार एवं उस बच्चे को भी कष्ट होता है । यदि किसी बच्चे में क्रोध करने का दोष है, तो क्या वह आनंदी रह सकेगा ? नहीं न ?इसलिए इस दोष क्रोध को नष्ट करने के लिए प्रयास करना ही शिक्षा है । बच्चो,माता-पिता एवं समाज को आनंद मिले, ऐसा वर्तन हमें करना चाहिए । यदि हम से सुयोग्य वर्तन नहीं हो रहा हो, तो हमे अपने में परिवर्तन करना अनिवार्य है । केवल परीक्षा में उत्तम अंक प्राप्त कर स्वयं में परिवर्तन होना संभव नहीं है।
३. परीक्षा पद्धति के कारण नकल करने की मात्रा बढना
वर्तमान परीक्षा पद्धति के कारण बच्चों को अपने परीक्षा के अंक ही सर्वस्व प्रतीत होते हैं । इस कारण नकल करने अर्थात अंकों की चोरी करने की विकृति बढ रही है । नकल करना योग्य है कि अयोग्य ? किसी बच्चे ने नकल की तथा अधिक अंक प्राप्त किए, तो क्या आप उसे बुदि्धमान तथा आदर्श विद्यार्थी कहेंगे ? इससे ही बच्चो में चोरी करने की प्रवृत्ती उत्पन्न होती है ।
४. एक दूसरे के प्रति प्रेम बढाकर मत्सर एवं द्वेष का निर्दालन करना ही खरी शिक्षा !
वर्तमान स्थिति में ‘अधिक अंक’ ही कसौटी होने के कारण किसी बच्चे को अधिक अंक मिलनेपर अन्य विद्यार्थियों की उसके साथ स्पर्धा करने की वृत्ति बढती है । स्पर्धा से आपस में प्रेम की भावना के स्थानपर द्वेष की भावना उत्पन्न होती है । वास्तव में शिक्षा का अर्थ द्वेष का निर्मूलन करना तथा एक दूसरे के प्रति प्रेमभाव बढाना है ।
५. वर्तमान शिक्षापद्धति से बच्चो में निर्भयता न आने से आत्महत्या जैसी दुर्घटनाएं घटना ।
इस परीक्षा पद्धति के कारण ‘परीक्षा के अंक ही सर्वस्व है एवं उत्तम अंक न मिलनेपर हमारा जीवन ही निरर्थक है’ ऐसा कुसंस्कार हुआ है । इससे मन का तनाव बढकर बच्चे निराश होकर आत्महत्या कर लेते हैं । शिक्षा का उचित अर्थ है, मन में निर्भयता लाना ! अल्प असफलता से निराश न होकर नया मार्ग ढूंढना सीखना चाहिए ।
६. भगवानजी की भक्ति करना जीवन की सर्वाधिक बडी संपत्ति !
बच्चो, भक्त प्रल्हाद में निर्भयता कहांसे आई ? प्रत्येक क्षण मृत्यु सामने होते हुए भी वह मृत्यु से भयभीत नहीं हुआ था । प्रल्हाद किस विद्यालय में गयाथा ? बच्चो, भक्त प्रल्हाद सदैव भगवानजी के चिंतन में लगा रहता था । जो भगवानजी का स्मरण करता है, उसमें भगवानजी के गुण आते हैं । भगवानजी स्वयं सर्वगुणसंपन्न हैं । इसलिए आज से हम भी भगवान का स्मरण कर उनके समान सर्वगुणसंपन्न बनेंगे ।
७. बच्चो, अपनी संकुचित वृत्तिका त्यागकर राष्ट्राभिमान जागृत करें !
वर्तमान में बच्चों में केवल परीक्षा में उत्तम अंक प्राप्त करने के लिए पढने की वृत्ती दिखाई दे रही है । उदा. बच्चे केवल अंक प्राप्त करने के लिए इतिहास पढते है । ‘मुझे आगे जाकर राष्ट्रपुरुषों के समान बनना है, उनके समान मुझे राष्ट्राभिमानी बनना चाहिए’, यह विचार ही बच्चों के मन में अंकित नहीं होता । बच्चों यह संकुचित वृति्त त्याग कर राष्ट्राभिमान उत्पन्न करना चाहिए ।
८. विद्या विनयेन शोभते !
अर्थ : विद्वान व्यक्ति में ‘नम्रता’ इस गुण के होनेपर ही उसकी विद्या खरेअर्थ से सिद्ध होती है ।
बच्चों शिक्षा से हम में नम्रता आनी चाहिए । नम्रता के बिना हम ज्ञान ठाहण नहीं कर सकते । हमे सदैव विनम्र होना चाहिए । नम्रता से ही ज्ञान काआरंभ होता है; परंतु वर्तमान परीक्षा पद्धति के कारण बच्चो में नम्रता नहीं आती। आइए, आज से इस गुण को बढाने का प्रयास करें ।
९. बच्चो, भगवानजी की भक्ति करें !
छत्रपति शिवाजी महाराज ने अपनी कुलदेवी की उपासना की थी । वे स्वयं भी सर्वगुणसंपन्न थे ! इसलिए बच्चो, भगवान की भक्ति करनेपर हमारा जीवन भी अच्छा तथा सर्वगुणसंपन्न बनेगा !’
– श्री. राजेंद्र पावसकर (गुरूजी)