हमारे देश से अंग्रेजों का राज हटाने के लिए अनेक देशभक्तों ने प्रयत्न किए । इन देशभक्तों में एक गुट था, सशस्त्र क्रांतिवीरों का । इन क्रांतिवीरों में झांसी की रानी लक्ष्मीबाई, सेनापति तात्या-साहेब टोपे, आद्यक्रांतिकारी वासुदेव बलवंत फडके, चाफेकर बंधु, मदनलाल, भगतसिंह से लेकर नेताजी सुभाषचंद्र बोस तक के नाम ले सकते हैं । इन सबके शिरोमणी थे वीर सावरकर ।
सावरकर केवल क्रांतिकारी ही नहीं, बल्कि द्रष्टा समाजसुधारक भी थे । ‘१८५७ का स्वतंत्रतासमर’ ग्रंथ में उन्होंने सप्रमाण सिद्ध किया है, कि १८५७ की लडाई सशस्त्र संघर्ष नहीं, बल्कि एक स्वतंत्रता संग्राम था ।
चाफेकर-रानडे जैसे क्रांतिकारियों को अंग्रेज सरकारद्वारा फांसीपर चढाए जाने के उपरांत, केवल चार ही दिनों में उन्होंने निश्चय किया । वे अपने पूजाघर में गए व भक्तिभाव से कुलदेवी की पूजा करने लगे । कुलदेवी के पवित्र चरणोंपर हाथ रखकर उन्होंने शपथ ली, ‘अपने देश को पुनः स्वतंत्रता दिलवाने के लिए सशस्त्र क्रांतिका सेतु निर्माण कर शरण नहीं, बल्कि रण, (आतताईयों को) मारते हुए मरण !’
सावरकरजी की विशेषता थी, कि वे केवल विचार कर अथवा विचारों को अन्यों के सामने रखकर नहीं रुकते थे, अपितु वे उन विचारों के अनुरोध से समाज परिवर्तन करने हेतु, लोकप्रियताको तुच्छ मानते हुए, सेनापति व सैनिक के रूप में लडे । उन्होंने अपनी लेखनी को तलवार बनाया । वे दोनों हाथों में शस्त्र लेकर लडे, इसीलिए उनके आचरण व विचारों में कहीं भी विसंगति नहीं दिखाई देती ।
१५ अगस्त १९४७ के दिन, उन्होंने स्वतंत्र हुए तीन चतुर्थांश हिंदुस्तान के लोकतंत्रद्वारा अपनाया गया तिरंगा ध्वज और साथ में अखंड हिंदुस्तान का प्रतीक बना कुंडलिनी कृपाणांकित हिंदु ध्वज अपने घरपर फहराया । इस हिंदु ध्वजपर दुर्जनों का विनाश करनेवाला कृपाण और योगानंद प्राप्ति का प्रतीक अर्थात् कुंडलिनी चिन्हांकित थे ।
यह स्वरचित वचन सावरकरजी के संपूर्ण जीवन का सूत्र था । सावरकर कहते थे, ‘‘जिन्हें खरी राष्ट्रसेवा करनी है, वे लोगों में प्रिय हों अथवा अप्रिय; वे लोगों के लिए वही करते हैं जो उनके लिए हितकर है । लोग जुलूस निकालेंगे अथवा अपमानित कर शहर में घुमाएंगे । जो इस ओर ध्यान देकर राष्ट्रहित के लिए अत्यंत आवश्यक अपरिहार्य तत्त्व और नीति को अस्वीकृत करता है, वह लोगों का एकनिष्ठ सेवक ही नहीं है । कर्तव्य के लिए जिन सुधारकों को समाज की भावनाओं को ठेस पहुंचानी पडती है, उनका कर्तव्य ही बनता है, कि वे समाज के गुस्से को कुछ काल के लिए सहन करें ।’’
सावरकरजी की मनोवृत्ति व्यापक, उदार व न्यायी थी । उनकी देशसेवा की साधना के व्यापकत्व को साधक भी अंगीकृत कर सकते हैं । वे लिखते हैं, ‘‘स्वतंत्रता प्राप्ति का श्रेय मवाल, असहयोगी, अहिंसक कहलवानेवाले सबको है । मैं तो इससे भी आगे जाकर स्वानुभव से बताता हूं, कि सशस्त्र अथवा नि:शस्त्र, गुप्त अथवा प्रकट आंदोलन में सक्रिय सहभागी होनेवाले अथवा चुप्पी साधकर ईश्वर से भारत को स्वतंत्र करने की प्रार्थना करनेवाले, ये सर्व इस स्वतंत्रता की विजय में सहभागी हैं ।’’
उन्होंने बहुत बार फांसी के फंदे को हिलाया, मृत्यु भी उनसे डरकर भाग गई । मात्र वृद्धावस्था में थका शरीर लेकर जीवन बिताना उन्हें पसंद नहीं था । उन्होंने तय किया, कि शंकराचार्य, ज्ञानेश्वर, तुकाराम जैसे महानुभवों समान वे भी आत्मार्पण करेंगे । उसी अनुसार निरंतर २२ दिन उपोषण कर उन्होंने २६ फरवरी १९६६ के दिन धन्योहऽम कहते हुए आत्मार्पण किया । ऐसी महान विभूति के चरणों में उनकी पुण्यतिथि निमित्त कोटी-कोटी प्रणाम !